पृथक्त्वेन तु यज्ग्यानं नानाभावान्पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ग्यानं विधि राजसम् ।। गीता : 18.21
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
जिस ज्ञान के द्वारा
मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग
जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
हम एक दूसरे को स्वभाव, व्यवहार,
पद व योग्यता आदि गुणों-शक्तियों के आधार पर अलग-अलग जानते हैं. यह उसी तरह हुआ
जिस तरह एटम के न्यूक्लियस की संरचना
नहीं जानकर उसके केवल आउटरमोस्ट आर्बिटल पर एलेक्ट्रोन का ज्ञान रखना. यह है आपसी
लेन-देन का ज्ञान, आत्मा से आत्मा
का ज्ञान नहीं है. यही है असंख्य भूतों में मनुष्य, जानवर, कीड़े-मकौड़े व पेड़-पौधे
आदि में उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना गुणों को अलग-अलग समझना. उनके कोशिका न्यूकलियो
प्लाज्म के तहत उन्हें एक ही नहीं मानना, ‘राजसी-ज्ञान’ है.
(30) स्थित-प्रग्य
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी आत्मस्त भाव में अवस्थित रहते पूर्ण
ज्ञानी हैं?
गीता (3.40-43) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियाँ, मन
और बुद्धि के द्वारा जीवात्मा का ज्ञान आच्छादित मोहित रहता है. शरीर से श्रेष्ठ
इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से मन, मन से बुद्धि और बुद्धि से अत्यंत पर आत्मा है और
आत्मा के साथ अवस्थित ‘परमात्मा’ है. इसलिये हे महाबाहो!
बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके तुम आत्मा हो और परमात्मा तुम्हारे साथ है को
ध्यान में रखते कामरूप दुर्जय-शत्रु को मार डाल. इस आत्मीयता से
कवि जगजननी माँ के श्रीचरणों में प्रणाम कर कहता है, विचारों की प्रवाह जीवन के मूलभूत प्रश्नों को
खड़ा करता है. वैसे भी माँ यह जीवन तेरी लिखी गयी एक कविता ही है न? उसके सुरे-बेसुरे भाव तेरी ही कृपा का परिणाम होंगे
या फिर परमतत्त्व के लिए लुप्त, गुप्त, सुप्त अश्रद्धा का परिणाम? कभी लगता है जीवन
में मेरी अपार श्रद्धा है, कभी लगता है इस श्रद्धा के उपरांत भी जीवन की अवस्था
उसी के रूप-स्वरूप में स्वीकार क्यों नहीं होती ? किसलिये हमारे कल्पित, अपेक्षित, इच्छित रूप-स्वरूप वाले
जीवन को ही स्वीकृति मिलती है? जब जीवन वास्तव
में उपयोगितावाद का साधन बन जायेगा तो यह जगत मूल्यों की रक्षा कैसे कर सकेगा ?
जगत के साथ के अंशभाव को किस प्रकार पा सकेंगे ?
क्या ऐसा जीवन मानव सृष्टि को अंधकार युग की ओर
धकेलने में सहायक नहीं बनते हैं? (पुस्तक-साक्षीभाव)
ये हैं महान विचारक सर्व कल्याणार्थ सोचने वाले भारत के महान प्रधानमंत्री श्री
नरेन्द्र मोदी की हृदयस्थ बातें.
गंगा कहती है :
राजस-भोग, आत्म संयम रहित इन्द्रिय प्रेरित, ज्ञानहीन, अंधकार भविष्य को निर्देशित करने वाला भोग है. यह इन्द्रीय दोहन, मंथन व शोषण का कार्य, नाक का कार्य जैसे कान से, एक ही लिंग में शादी जैसा है. कहाँ खनन, कहाँ से कितना जल-निकासी, कहाँ STP और कहाँ इसके अवजल का कैसे विसर्जन आदि असंख्य दुर्व्यवस्था का होना ‘राजसी-कार्य’ है.