नदी की वक्रारिता, नदी का साँप जैसे टेढ़ा-मेढ़ा होकर चलना है, जैसे दो मानव के स्वरूप, चाल-चलन, रक्त-गुण आदि एक जैसे नहीं होते, उसी तरह समस्त नदियां एक-दूसरे से अलग-अलग होती हैं और यह जगह और समय से भी बदलता चलता है. अत: नदी मानव शरीर जैसे ही विभिन्न अंगों और उनके विभिन्न जोड़ों से बनी हैं. नदी के इन चारित्रिक मोड़ों को और इनके जोड़ों को समझना ही नदी-शरीर के ज्ञान का होना है. इसी ज्ञान के लिये मेडिकल इंस्टिट्यूट के साथ साथ हॉस्पिटल होता है. नदी के लिये न तो नदी का इंस्टिट्यूट है और न ही इसका निर्धारित मैनेजमेंट ट्रेनिंग सेंटर. अतः नदी की आधारभूत व्यवस्था के लिये जियोमोर्फोलोजी के ज्ञान का नहीं होना, नदी के मात्र चेहरे को नहीं देखना और काम कर देना, डैम बैरेज-इन्फ्रास्ट्रक्चर, पूल, STP, माल-वाहक का पोर्ट बनवा देना गंगा की समस्या है.
किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके मुख से निकला हुआ एक वाक्य परिभाषित करता है. उस वाक्य को बोलते समय उसके चेहरे का भाव, उसके भीतर की भावना को परिलक्षित करता है, यही है रिवर की जियोमोर्फोलोजी यानि नदी के भीतरी और बाहरी चरित्र-गुण का परिचायक. मानव जब बोलता है तब वह अपने भीतर की शक्ति को निकालता है. इससे उसके शरीर की कोशिकाओं का स्वरूप बदलता है, जो उसके चेहरे को बदल डालता है. यही होता है नदियों में, भू-जल और सतही जल के प्रवाह-गुण से, खास कर प्रवाह के सेकेंडरी-सर्कुलेशन से, नदी-क्रॉस सेक्शन बदलते हैं, ढ़ाल-बदलता है, मिट्टी के चरित्र बदलते हैं. यही है, उदाहरण के लिये, गंगा-यमुना की जियोमोर्फोलोजी. अतः कम से कम “गंगा जियोमोर्फोलोजी स्टडी सेन्टर” का होना अत्यावश्यक है.