यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ।। गीता : 9.27 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मुझे अर्पण कर.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
कर्म अथार्त शक्ति का बाह्य-प्रवाह, भोजन अथार्त
पदार्थ का अन्तः प्रवाह, हवन अथार्त दान और तप शक्ति के अन्तः प्रवाह को सम्बोधित करता है. अतः तुम्हारा शरीर, शक्ति और पदार्थ की अन्तः और बाह्य-प्रवाह के निरंतर के रंग-बिरंगे चहुदिश ध्वनित प्रतिध्वनित खेल का मैदान है. इस खेल की समयावधि आसानी से बढ़ायी जा सकती है. यदि खेल-खेलने की भावना को प्रेम भक्ति की अर्पण-समर्पण भावना में रूपांतरित कर दिया जाए तो यह खेल आत्म-संतुलित निश्चिंतता से, पूर्ण एकाग्रता और
क्षमता के न्यूनतम नुकसान के साथ होगा. यही है, शक्ति-केन्द्र से निरंतरता से हर कार्य में जुड़े रहकर, न्यूनतम कम्पन्नावस्था में जमीन स्तर पर कम्पन्न के कार्य को सम्पादन करना. उछलते-कूदते गाय के नवजात शिशु को पतली रस्सी से खूँटे में बाँध, रस्सी छोटी करते हुए, बछडे को शांत कर खुट्टा के नजदीक बैठा देना होता है. इसे ही भगवान ने कहा है, वह सब कुछ मुझको अर्पण करो, निरंतर अपने आप को खूंटे से बाँधे रखो, तभी तुम्हे संतुलित शांतिपूर्ण जीवन मिलेगा.
गंगा कहती है :
तुम्हारी भावना कोशिका-व्यवस्था तुमसे होते रहते समस्त कार्य के निस्पादन पद्धति को परिभाषित और निरूपित करती है. यदि सिंचाई के लिये गंगाजल का उपयोग करने वाले किसान को न्यूनाधिक जल उपयोग की तकनीक और उससे होने वाले फायदे के तहत अधिकतम ऊपज और जमीन का ऊसर न होने को समझते हुए गंगाजल बचाने से फायदे को समझा जाए और इसके लिये समुचित सिंचाई तकनीक यथा छिडकना , कुंड बनाना आदि सिंचाई के तरीके को समझा जाए तो यह गंगा की बाह्य प्रवाह व्यवस्था कर्म समर्पण कहलाती है. यदि खेत के मेंड़ को 30-40 सें ऊँचा कर वर्षा के जल को भूजल भंडारण किया जाए तो यह गंगा का भोजन अर्पण कहलायेगा. यदि फरक्का सहित विभिन्न बैरेजों को नियंत्रित किया जाए तो यह गंगा का हवन और दान अर्पण कहलाएगा और प्रदूषक की यदि सम्पूर्णता से व्यवस्था हो जाए तो यह गंगा का तप-अर्पण कहलाएगा. यही है, गंगा में हो रहे समस्त कार्यों का, गंगा के इस काल में समर्पण.