शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।। सन्यासयोगयुक्तात्मा बिमुक्तो मामुपैष्सयसि ।। गीता : 9.28 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान को अर्पण होते हैं, ऐसे संन्यास योग से युक्त चित्त वाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्म बन्धन से मुक्त हो जायेगा और उनसे मुक्त होकर मुझ को ही प्राप्त होगा.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
कर्मबन्धनै:, कार्य के इच्छा युक्त फल के मनस्थली में प्रविष्ट करते ही कलेजा तीव्रता से धड़कना आरंभ हो जाता है और कार्य होने तक मनस्त के उथल पुथल से रक्तचाप बढा रहता है और शक्तिक्षय निरंतरता से होती रहती है. यह कर्म फल बंधन का आरंभिक कोशिका कम्पन्न विस्तार है. कर्म बंधन के कारण, तड़पने का दूसरा तीव्र होता स्तर तब तक बना रहता है जब तक कर्मफल प्राप्त
न हो जाये. फल प्राप्त होने के उपरांत भी धड़कन, लोक-लज्जा और अस्वीकृति आत्मनिर्णय से बनी रहती है. चोरी, डकैती, बेईमानी, घूस तथा अन्य समस्त वैसे कर्म जो तीन स्तरों में कम्पन्न को उत्तेजित करते शक्ति क्षय और अशांति का कारण हो वह कर्मबंधन
कहलाते है . यह “कर्म-बंधन” मात्र संन्यास योग से युक्त इन्हें आत्मस्त कर परब्रह्म के शुभाशुभ समस्त कार्यों को समर्पित कर दिया जाये तो यही होता है उसे प्राप्त करना.
गंगा कहती है :
“निस्वार्थता” बंधन मुक्ति है, निस्वार्थता ऊर्जाओं और व्यक्तित्व की महिमा करने के लिए सबसे मूल्यवान ऊर्जा अणु है और वह विशाल शांति की प्राप्ति प्रदान करता है, जो संबंधित व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य भी है. इसके तहत समस्त शुभ लाभदायक और अशुभ हानिकारक समस्त कार्यों को मैं कर्म बंधन मुक्त मानती हूँ परन्तु क्या भीमगोरा, नरोरा बैरेज अंग्रेजों ने भारत की समृद्धि के लिये बनाये थे या गंगा की शक्ति को न्यूनाधिक करने के लिये? इसी तरह समतल क्षेत्र में भीमकाय फरक्का-बैरेज का निर्माण बंधन युक्त स्वार्थवश है. इन सबके निर्माण में प्रत्यक्ष और परौक्ष रूप से कर्म बंधन से जकड़े लोग संन्यास योग से युक्त नहीं कहे जा सकते हैं.