दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता । मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोअ्सि पाण्डव ।। गीता : 16.5 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
देवी सम्पदा मुक्ति के
लिये और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिये मानी गयी है । इसलिये हे अर्जुन ! तू शोक मत
कर क्योंकि तू देवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
(1) तेज पर ध्यान
होना शक्ति की एकाग्रता है. (2) क्षमा करना, अपने आपको समेटना है. (3) धृतिः धारण, एकाग्रता की स्थिरता है. (4) बाहर की शुद्धि,
कोशिका का रेखांकीकरण, केंद्र का
निर्माण करना है. (5) किसी में शत्रु भाव का न होना,
शक्ति-प्रवाह के ढ़ाल को मिटाना है. (6) अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव, न्यूट्रोन होने के भाव को अपने आप में प्रतिष्ठित करना है. ये छ: स्तम्भ हैं, शक्ति संचयन के ब्रह्म की ओर बढ़ने का, कम्पनविहीन होने का, जीवन उद्देश्य की
पूर्ति करने का, मुक्ति देवी सम्पदा पाने का. यदि ये नहीं, तो दम्भ, घमंड, अभिमान, क्रोध, कठोरता, अज्ञान,
आसुरी सम्पदा, शक्ति-क्षय का नीचे गिरते
कीड़ें-मकौड़े आदि होते जाने का है.
गंगा कहती है :
शक्ति और पदार्थ, रुपए-डॉलर और क्रमशः इनसे खरीदा गया समान है. दोनों में अन्तर, एक शांति को तो दूसरा सुख को परिभाषित और प्रतिष्ठित करता है, यह दोनों ही आवश्यक हैं. यही है, किसी भी शरीर में संतुलंता का सिद्धांत. यही सिद्धांत मेरे शरीर में भी लागू होता है. इसकी अवज्ञा ही हमारी समस्या है. हमारी स्थैतिक-ऊर्जा, गतिज-ऊर्जा को परिभाषित करती है. जितना जल उतना वेग, उतना ही उसमें ऑक्सीजन और उतना कम BOD, उतना शुद्ध-जल, उतनी ही शुद्ध वायु और मिट्टी, भोजन, संस्कारी, तेज संतान, उतना ही शांत-जीवन. इस सम्बन्ध को जानने के कारण ही अंग्रेजों द्वारा निर्मित भीमगोडा-बिजनौर-नरोरा-बैरेज से गंगा को नष्ट करने का उपाय शायद सोचा गया. अवैज्ञानिक विधि से लगभग सम्पूर्णता से जल का दोहन परतंत्र भारत में हुआ, पर अब ऐसा क्यों ? अब तुम हमारी आवश्यकता को समझो तथा सिंचाई-पद्धति को बदलो और दोहन को नियंत्रित करो तब ही तुम मेरी दैवी-शक्ति की झलक ले सकते हो. अभी तो मैं तुम्हारी तीक्ष्ण होती आसुरी चारित्रिक सम्पदा से त्रस्त हूँ.