अहं हि सर्वयग्यानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।। गीता : 9.24 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोगता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझ परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
तत्त्वेन, न अभिजानन्ति, शक्ति प्रवाह कहाँ से, कहाँ को, किसके लिये है यह नहीं जानना, अंधकार-कूप, कम्पन्न-समुद्र, किं कर्तव्य विमूढ़ावस्था में निरंतरता से आकंठ में डूबा रहना है. अतः अविर्लता से थरथराते शरीर में स्थिरावस्था में निराकार आत्मा कहाँ, क्यों और कैसे को नहीं समझते शरीर के सूक्ष्माति सूक्ष्म एटम के केन्द्र में अवस्थित प्रोट्रोन, आत्मा और न्यूट्रोन रूप परमात्मा को कर्ता और भोगता के रूप में नही समझना और उसके अनूभूति का नहीं होना को तत्वेन न अभिजानन्ति कहते हैं. यही है शरीर रूप मंदिर में आत्मा के संग परमात्मा के अनूभूति का आनंद लेना यही है, सब यज्ञों में मन-वचन-कर्म से निरूपित हो रहे समस्त सूक्ष्र्म और वृहत कार्यों का भोगता और कर्ता का होना. अतः कर्ता-धर्ता विधाता की अवधारणा समस्त छान-पगहा क्षण में ध्वस्त कर स्वछन्द-विचर का अमोघ-वरदान देता है. यही है संसार-खेल को निर्लिप्तता से देखते मुग्ध और आनंदित रहना. परन्तु यदि यह नहीं खेल में आशक्ति और लगाव तब आते जाइये, जाते-जाइये. भ्रमर के महासमुद्र इस संसार में “डुबकी-चुभकी” लगाते रहिये.
गंगा कहती है :
गम्भीरता से सुनों, हर चीज का प्रथम मौलिक उद्देश्य होता है, जिसकी पूर्ति के लिए उसका जन्म होता है
और जब तक वह जीवित रहता है, अपने चारित्रिक गुण के तहत अपने मौलिक कार्य का निर्वहन करता रहता है. यह उसी तरह होता है, जिस तरह महारानी बुड्ढी होने पर भी दासी नहीं बन सकती, घोड़ा बुड्ढा होने पर भी गधा नहीं बन सकता. यह तो हुई शरीर बदलने वालो की बात मेरे साथ तो यह बात नहीं है, अतः जिस उद्देश्य को ले कर मैं आयी थी, उस उद्देश्य की पूर्ति निरंतरता से करते रहना मेरा कर्तव्य संग अधिकार है और इस में व्यवधान का होना मेरी परतंत्रता है. मैं राजा भागीरथ की कठोर तपस्या से अपने त्रिपथ-गामिणी-वेग से शिव की जटा में घुड़मिड़िया काटते हुए राजा सागर के पुत्रों के उद्धार तथा मुक्ति के लिये, पृथ्वी पर अवतरित हुई थी. अतः मेरा मौलिक-कार्य मुक्ति देना है और यह मुक्ति ज्ञान से होती है और यह ज्ञान संतुलित-पंच-महाभूत से प्राप्त होता है और महाभूत में संतुलंता तब आती है जब मुझमें मौलिकता रहती है. तुम, हमारे समस्त जल को निरंतरता से निकालते चले जा रहे हो. इसका अर्थ हुआ कि तुम मेरा मौलिक-चरित्र नष्ट कर रहे हो, तब मैं पंच महाभूतों को संतुलित कैसे करूँगी? उदंड होते तथा अशांति-फैलाते अपने बच्चों को सत्य-आचरण के पाठ को उनके हृदयस्थल में कैसे विस्थापित करूँगी? तुम ज्ञानी-विज्ञानी तथा
ध्यानी बनों. मैं तुम्हारा उद्धार करने आयी थी,वैसा मुझे बनाकर रखो, मैं ही हूँ ब्रहमाण्ड का एकमात्र मुक्ति कल्प वृक्ष.