अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।। तेषां नित्याभियु- क्तानां योगक्षेमं बहा-म्यहम् ।। गीता : 9.22 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
अनन्य प्रेम, निश्छल-निःष्काम ज्ञान युक्त भक्ति है. यह चेहरे को हूबहू कलेजे में उतार लेना, अपने आप को उसमें विलीन कर लेनातथा चौबीसों घंटे उसी का मनन व ध्यान करना. यही है, सुध-बुध का खोना. समस्त बाह्य-दिशोन्मुख शक्ति तरंगों को समेंटते हुए एक बिन्दु पर एकाग्र करना. यही है, इन्द्री और मन को एक साथ समेटते हुए आत्म शक्ति की पूर्णता को प्राप्त करना वो भी बिना आंतरिक क्षमता को कोई
नुकसान पहुंचाए. यदि शक्ति-पूर्णता की इस स्थिति में निरंतरता और दृढ़ता हो तब जो चाहे उसका होना और सब कुछ संरक्षित और नियंत्रित होना, यह अपार सम्पत्ति से कहीं ज्यादा मूल्यवान इसलिये होता है क्योंकि यह अदृश्य विपदाओं का भी नियंत्रक होता है. अतः परब्रह्म से अनन्य निरंतर प्रेम से प्राप्त होने वाला समस्त आवश्यकताओं और सम्पूर्ण सुरक्षा से योगक्षेम को प्राप्त करना होता है. अतः योगक्षेम उस चीज़ की आपूर्ति व
कमी है जो पहले से मौजूद है तथा उसका संरक्षण है.
गंगा कहती है :
मुझ में अनन्य प्रेम, मुझ से अविर्लता और निरंतरता से निस्तारित होने वाली विभिन्न शक्ति सुगंधों को निश्छलता और निर्लिप्ता से रसास्वादन करना है. इससे तुम में आत्म-ज्ञान बढ़ेगा तथा हमारे प्रति तुम्हारा लगाव बढ़ेगा. तुम हमारी गुण-शक्ति की रक्षा करोगे. यही है, ज्ञान से युक्त होकर अनन्य प्रेम का होना. इसे करने वाले महान साधक योगी, ज्ञानी-विज्ञानी ही होते आये हैं और होते रहेंगें. मेरी शक्ति-सुगंध, मेरी स्थैतिक ऊर्जा और जल गुण रूप आन्तरिक ऊर्जा से युक्त विभिन्न बाह्य एवं अन्तःप्रवाह और अवरोध के तहत निरूपित होते चलते गतिज-ऊर्जा और बदलते जलगुण ऊर्जाओ को स्थान और समय से बदलाव को सम्बोधित करता चलता है. अत: मेरे शरीर से पदार्थ और शक्ति की बाह्य और अन्तःप्रवाह की संतुलंता को स्थान और समय के सापेक्ष समझो. यदि तुमने सम्पूर्णता से हमारी विभिन्न शक्तियों को संरक्षित कर लिया और मैं तुम्हारी अनन्य प्रेमी बन गयी तो मैं तुम्हारी समस्त समस्याओं का निदान योगक्षेम का निर्वहन करूँगी.