यत्तु प्रत्युपकार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।। गीता : 17.21 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
किन्तु जो दान
प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से
या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह राजस दान
कहलाता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
प्रत्युपकार की भावना, देना कर्तव्य है की भावना, नहीं देते हैं
तो लेंगे की भावना, कोशिका को ढ़ीलापन से
शक्ति आवेष्टित करता है इसलिए दान देने रूपी कार्य का सम्पूर्णता से शक्ति में
रूपांतरण नहीं होता. इस शक्ति क्षय के साथ दान कार्य ‘राजसी-दान’ कहलाता है. इससे एस्टोर्ड एनर्जी, संकलित शक्ति न्यून होती
है.
गंगा कहती है :
तुम्हारे हजारों-हजार करोड़
के गंगा प्रोजेक्ट कहीं किसी रूप में तकनीकी दृष्टिकोण से गंगा के लिए रत्तीभर भी
लाभदायक होते दिखाई नहीं दे रहा है. वहीं मैली-कुचैली, सूखी चिमटी काली, कलुठी, दुर्गंध
करती जल लिए मातेश्वरी गंगे शिवस्थली काशी में प्रवाहित हो रही है. अतः तुम्हारा
समस्त व्यय गंगा के लिए दान राजसी है.
गीता (2.64) ,’आत्मवश्यैर्विधेयात्मा’ , इन्द्रिय भोग को वश में करनें वाले स्थितप्रग्य भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को आगाह करती है, कि समस्त आत्माओं की आत्मा में बसने वाली, विधेयात्मा परमात्म रूप भारत की आत्मा गंगा को भारत की आत्मस्त रूप में अपनें स्थितप्रग्य अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करना ही होगा, तभी वह इन्द्रिय भोगी नहीं होते हुए समस्त अन्य इन्द्रिय भोगी को चला पाएंगे. यही तकनीक है. आत्मा के भीतर परमात्मा से संसार का संचालन होना. यही है, श्री नरेन्द्र मोदी की आत्मा में गंगा-रूप परमात्मा का होना अथार्त आत्मवश्यैर्विधेयात्मा.