अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: । दम्भाहंकारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता: ।। गीता : 17.5 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
मनुष्य शास्त्र विधि से
रहित केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त कामना,
आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं,
श्लोक की
वैज्ञानिकता :
मनःकल्पित घोर तप अथार्त
किसी खास स्वरूप के कम्पन्नावस्था की अवस्थिति में कोशिका को बनाए रखते हुए,
उसे कंपकंपाते हुए निरंतरता से कई वर्षों से
शक्ति प्रवाह द्वारा तल्लीनता से करते रहना ही मन कल्पित घोर तप है. इसमें दम्भ और अहंकार अतिरिक्त रूप का कम्पन्न
एक्सीलेरेटर है. इस तरह से होते
रहते शक्ति प्रवाह में कामनारूपी लक्ष्य विस्तार से और इसमें आसक्ति रूपी तत्परता
से बल लगाते हुए कोशिका के भीतर की भीतरी अवस्थिति को आंदोलित करते हुए शक्ति क्षय
को बढ़ाते रहना है, यही है, बहुत बड़े-बड़े व्यापारियों का दिन-रात, सोते-जागते अपने व्यापार को करते हुए और इसको
बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करने वाला ही मन कल्पित घोर तप करने वाला होता है,
इसे ही भगवान श्री कृष्ण मन कल्पित घोर तप कहते
हैं,
गंगा कहती है :
जल संरक्षण तकनीक, इनफ्लो-आउटफ्लो संतुलनता का एवं अन्य वैज्ञानिक और तकनीकी सिद्धांतों का जड़-मूल से नहीं लागू होना और पुरानी सिंचाई पद्धति यथा 'फ्लडींग सिस्टम ऑफ एरिगेशन का उपयोग होते रहना, भीमगोडा, बिजनौर व नरोरा आदि बैरेजों से बारंबारता से हमारे लगभग सम्पूर्ण जल का दोहन होते रहना और इस दोहन को और बढाने की योजना बनाते रहना, जल संरक्षण को बिना सोचे और उससे संबंधी कोई उपाय नहीं करना व सूखती जाती मेरी धारा में मालवाहक चलाने का तुम्हारा दृढ़ निश्चय और इसमें तुम्हारी तल्लीनता ही मन कल्पित घोर तप है.