अभिसन्धाय तु फलं
दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यग्यं विद्धि राजसम् ।। गीता : 17.12 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
परन्तु हे अर्जुन ! केवल
दम्भाचरण के लिये अथवा फल को दृष्टिमें रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू
राजस जान.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
फल को दृष्टि में रखकर
कार्य व यज्ञ करना, कार्य करने में न्यूनता की तल्लीनता शक्ति प्रवाह की क्षीणता को परिलक्षित
करता है. कार्य को कार्य समझकर कार्य करना, सम्पूर्णता से शक्ति प्रवाह को कार्य
के लिए एक बिन्दु पर लगाना नहीं है. यह शरीर के उच्च कम्पनावस्था की स्थिति में
कार्य करना है. इस कारण कार्य का फल, परिणाम वह नहीं होता जो होना चाहिए. यही है
राजसी कार्य अथार्त कार्य फल का खट मधूर होना.
गंगा कहती है :
अंग्रेजों को भीमगोडा-नरोरा बनाने की इच्छा, गंगा के उद्गम स्थल के समस्त मौलिक औषधीय गुण को जल से विनष्ट कर करोड़ों लोगों को गंगाजल के गुण के लाभ से वंचित कर उनके संस्कृति और संस्कार को निम्न करते उनके बुद्धि को धूमिल कर उन पर लम्बे अवधि तक राज करना था. यही इन विशाल बैरैजों के बनने का कारण था. यही था, अवैज्ञानिक आधाराओं पर फरक्का बैरेज, टेहरी और अन्य बड़े-ऊँचे बाँधों को फल की इच्छा से वातावरणीय संतुलन के प्रतिकूल राजसी यज्ञ कार्य का होना. यही है, मुझ को अपने कार्य के कम्पनावस्था से कम्पायमान करते रहना.