यत्तु प्रत्युपकारार्थन फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।। गीता : 17.22 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
किन्तु जो दान
प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह रजोगुणी (राजस) कहलाता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
क्लेश पूर्वक दान, धन से
चिपकना, धन त्यागने से कपकपानें को सम्बोधित करता है. अतः यह शक्तिक्षय कारक है. यदि
फल प्राप्ति की दृष्टि से दान किया जाए तो दान करने की क्रिया में शक्ति की
निस्तरंता में फल की इच्छा से कोशिका की थरथराहट से शक्ति प्रवाह अवरोध के कारण तीक्ष्ण
नहीं हो पाती. अतः दान कार्य धन से निवृत्ति होने का कार्य, अपनी लंगोटी झाड़ने का
कार्य अधूरा रह जाता है. यही है, बंधनकारी त्याग, दान, राजस दान.
गीता (2.64-65) प्रतिष्ठित करती है कि इन्द्रीय निग्रह शरीर से
राग-द्वेष की निवृत्ति करते शरीरस्थ आत्मा का दर्शन कराती है, जो अपने से दूसरे में अन्तर नहीं दिखाते
शांति-प्रदान करती है, इससे समस्त
दुःखों का अन्त होता है, वह प्रसन्न कर्म योगी
होता है और उसकी बुद्धि-स्थिर होती है. यह प्रतिभा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र
मोदी जी ने (1) सुकन्या समृद्धि
योजना (2) जीवन-ज्योति बीमा योजना (3) स्त्री स्वाभिमान योजना (4) बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना (5) सुरक्षित मातृत्व
अभियान योजना (6) ट्रिपल तलाक
कानून (7) गर्भवती महिला आर्थिक
सहायता योजना (8) महिलाओं के लिए
राष्ट्रीय पोषण मिशन (9) प्रधानमंत्री महिला शक्ति केन्द्र योजना आदि
लगभग 160 योजनाओं द्वारा ‘रागद्वेषवियुक्तैस्तु-विषयानिन्द्रियैश्चरन् को प्रतिष्ठित करते अपने आप को ‘कर्म-योगी’, स्थितप्रग्य सत्यापित किया है.
गंगा कहती है :
अनिच्छा से मेरे जल और शक्ति का दान हरिद्वार, बिजनौर, नरौरा, फरक्का आदि जगहों पर अशाश्त्रिय विधि से करवाया जा रहा है. मैं भयावह दारूण सहती हूँ. मेरे सतही और भूजल के स्तर का अन्तर, फ्रीसीपेज-हाइट, जो शून्य होना चाहिए वह कई मीटर में रहता है. इस वेदना को बर्दाश्त करते हुए, मैं राजसी दान कर रही हूँ.