महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।। यग्यानां जपयग्योअ्स्मि स्थाबराणां हिमालय: ।। गीता : 10.25 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों में एकाक्षर ऊँ हूँ. सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
‘भृगु’, ब्रहमाण्ड के प्रथम जीव ‘ब्रह्मा’ के सबसे शक्तिशाली पुत्र परब्रह्मदर्शी, ज्ञाता और मानव वश के उथ्थानक प्रथम महर्षि, परब्रह्मरूप थे. एकाक्षर शब्द ‘ऊँ’ शक्ति प्रवाह, समरूप आवृति की उर्द्धगामी ध्वनि
शक्ति तरंग सबसे तीव्र बह्म को पहुँचने वाला संवाहक, उनको
झकझोरने वाला संवाददाता है. अतः ‘ऊँ’ ब्रह्म रूप है. जप, यज्ञ, अन्तःस्थल के केन्द्र आत्मा को तथा आत्मा से उत्पन्न सूक्ष्म आयाम और उच्च-आवृति की ध्वनि रूप शक्ति तरंगों से अभिसिंचित करना, तीव्रता से आन्तरिक शक्ति को बढ़ाना ब्रह्मरूप है. हिमालय की ब्रह्मरूप स्थिरता, इसकी अतुल्यनीय शक्ति के परम शांति क्षेत्र, तपस्थली ज्ञान स्थली को उद्बोधित और उद्घोषित करता है. यही है ब्रह्म का गिरिराज हिमालय का स्वरूप और महर्षियों योगियों साधकों की तपस्थली हिमालय.
गंगा कहती है :
भारत के महर्षियों, ऋषियों व योगियों का संस्कार तेज ब्रह्म शक्ति मुझ ब्रह्माणी का है. वेद पुराण और एकाक्षर ऊँ सहित समस्त मंत्र और कर्म काण्ड मेरे तेज के अंश है. स्थिर ब्रह्मरूप हिमालय से प्रतिष्ठित प्रवाहित मैं ब्रह्माणी विश्व की सबसे समतल और अधिकतम गहराई की उपजाऊ भूमि के बेसिन का कारण हिमालय की स्थिरता है, क्योंकि किसी चीज की स्थिरता जितनी प्रबल होती है, उससे उतनी ही दूरी की वस्तुएं स्थिर, शक्तिशाली और गुणवान होती है. यह उसी तरह होता है, जिस तरह झटपटाता बछडा खूंटे से बंधने पर स्थिर हो जाता है. यही है स्थिर हिमालय से गंगा सहित अन्य हिमालय नदियों और उनके बेसिन का गुणवान और शक्तिशाली होना.