एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः । आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ।। गीता : 16.22 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन! इन तीनों नरक के
द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परमगति अर्थात मुझको
प्राप्त हो जाता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
तीनों द्वारों से मुक्त कोशिकाओं
को तितर-बितर करते हुए, बाह्यमुखी तरंगायित शक्ति प्रवाह को नियंत्रित करते हुए प्रवाह
पर ब्रेक लगाना है. इससे गतिज ऊर्जा को स्थैतिक ऊर्जा में रूपांतरित कर कोशिका की थरथराहट
को मिटाया जाता है. इसके उपरांत इसके मौलिक कम्पन्नावस्था में जमीनी स्तर के
कम्पन्न में लाना है. इसके बाद इस स्थिति को स्थायित्व
से शरीरस्थ कम्पन्न में इलेक्ट्रान की भांति शून्य से कम्पन्नावस्था की ओर “एफ”
ऑर्बिटल से “डी” पर फिर फिर “पी” पर फिर “एस” पर हो जाता है. यही है, ध्यानस्थ, आत्मस्थ व समाधिस्थ न्यूक्लियस में अपने आपको समाकर कम्पन्न
शून्य न्यूट्रॉन व गामा शक्ति का तथा अनंत शक्ति का ब्रह्म हो जाना. यही भगवान
श्रीकृष्ण कहते हैं कि तीनों
द्वारों को बंद कर देने वाला मुझको प्राप्त होता है.
गंगा कहती है :
अपरिभाषित, अनियंत्रित भूजल और
सतही जल के मिलन स्तर को कितने ही मीटर नीचे कर देना अर्थात “फ्री सीपेज हाइट” को बढ़ाते
चले जाना ही दोहन करना कहलाता है और जल आवेग को क्षय करते हुए अवजल को कहां, कितना
व कैसे यह जाने बिना प्रवाहित करते जाना. मेरे
जल घनत्व को बढ़ाते हुए जल में ऑक्सीजन रखने की क्षमता को घटाते और B.O.D को बढ़ाते जाना ही शोषण है और इस दोहन और शोषण
का कहीं भी अंत नहीं होना व निरंतरता से इनमें वृद्धि होते रहना ये मेरा अंत करने के तीन द्वार तुमनें बना रखे हैं. जब
तक तुम इन पर नियंत्रण नहीं रखोगे तब तक हमें नहीं बचा सकते और यही तुम्हारे नरक
के द्वार है. इन्हें बन्द करो और अपने आप को संयमित और नियंत्रित बनाओ तभी तुम अपने जीवन के उद्देश्य सुख, शांति, आनंद
और मुक्ति को प्राप्त कर सकते हो.