अफलाकांक्षिभिर्यग्यो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विक: ।। गीता : 17.11 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
जो शास्त्र विधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है. इस प्रकार मन को एकाग्र कर
के फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
शास्त्र विधि से नियत
कर्म, जीवन-उद्देश्य, परम शांति
रूप परमशक्ति से ब्रह्म को प्राप्त करना है. यही है, हर एक एटम के न्यूट्रॉन, हर
एक शरीर में आत्मा के साथ अवस्थित परमात्मा को जानने व समझने तथा प्राप्त करने के
ज्ञान-विज्ञान का लक्ष्य कार्य, यह शास्त्र, साक्षात ब्रह्म शिव, राम और कृष्ण व इनके अनेक रूपों में अवतरित भारत के महान साधकों
के द्वारा वेद पुराण, गीता, उपनिषद आदि ग्रंथों के रूप से समस्त ज्ञानों का ज्ञान भंडार
है. इस शास्त्र के प्रकाश आधारित शरीर से, निरंतरता से हो रही शक्ति प्रवाह को
लक्ष्य बिन्दु पर परम ज्ञान शांति-शक्ति पर किसी तरह के फल की इच्छा से रहित होकर
एकाग्रता से करना ही सात्त्विक कार्य है, यही भगवान कहते हैं.
गंगा कहती है :
समस्त शास्त्र पुराण और विभिन्न
विज्ञानों के ज्ञान, नदी जल और जीव जगत का वातावरणीय ज्ञान, जल मात्रा से जलगुण, ताप दबाव, वर्षा भूजल सतही जल आदि के सम्बन्धों
की व्याख्या करते हैं. इसी आधार पर नदी में जल प्रवाह का सतही संतुलन और भू-जल को
एक स्तर पर मिलना होता है. यह मिलना उसी तरह महत्त्वपूर्ण है, जिस तरह मानव की
अवस्था के अनुसार शरीर में रक्त प्रवाह होता है और रक्त-प्रवाह के अनुसार उसको
भोजन की आवश्यकता होती है. इन दोनों के सम्बन्ध से शरीर का कम्पन्न परिभाषित होता है
और इससे वातावरण इसी तरह नदियों में भू और सतही जल का एक स्तर पर मिलना ही नदी से वातावरण
की संतुलंता का सात्त्विक रूप है. यही है, नदी से उतना ही जल का निस्तारण जिससे भू
और सतही जल के स्तर में अन्तर अर्थात ‘फ्री सीपेज हाइट’ शून्य हो. यही है, नदी का न्यूनतम प्रवाह और यही गीता
कहती है.