तेषामेवानुकम्पार्थ महमग्यानजं तमः ।। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।। गीता : 10.11 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ, मैं स्वयं ही उनके अज्ञान जनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्व ज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
“अहम् आत्मभावस्थम्” अथार्त मैं आत्मा के अन्तःकरण में स्थित हुआ हूं,
यह सूक्ष्म कोशिका मध्य सूक्ष्माति सूक्ष्म कण एटम के अन्तःस्थल में अवस्थित न्यूट्रोन को परिभाषित करता है. आगे यह सम्बोधित और निर्देशित करते कहता है कि मैं ही वह हूँ, जो बिना हाथ, पाँव, आँख, कान, नाक आदि के समस्त ब्रहमाण्ड को नचाने वाला, सर्वत्र निरंतरता से चक्रमन करने वाला, सबका सब कुछ देखते, सुनते, न्याय करने वाला और उनके अज्ञान जनित कम्पन्न से निरंतरता से निरूपित होती रहती शक्ति क्षय से बढ़ती हुई अंधकार को स्थिर शांति रूप दीपक के प्रकाश से नष्ट करने वाला हूं. यही है, एकाग्रता की गहन तल्लीनता से गहराई की छिपी आत्मस्त प्रचंड शक्ति से गामा-रे सदृष्य प्रकाश-पुन्ज से अंधकार का नष्ट होना. यही है तप व बल से बुद्धि, शक्ति व बल को प्राप्त करना.
गंगा कहती है :
मुझ में कर्म, बुद्धि, भक्ति व आत्मीय भाव से तल्लीनता रखने वाले मेरी नस-नस को जानते हैं और हर एक धड़कन को गम्भीरता से सुनकर सरलता से हर जटिल समस्या का समाधान न्यूनतम खर्च में चुटकी बजाते हुए कर डालते है. यही है अत्यधिक समीपता से 100% प्रतिध्वनि उत्पन्न कर बाढ़, आकाल, कटाव, जमाव, प्रदूषण, हाइड्रोपावर व जल परिवहन आदि समस्त समस्याओं का निदान चुटकी बजाते करना है. यह तभी संभव है जब तुम नदी की भू आकृति विज्ञान और गतिशीलता के संबंध को जानते हुए सालों साल से फिल्ड लैब डेटा पर विवेकपूर्ण विवेचना करते आ रहे हो. यही है संगम व सिद्धान्त से कटाव, स्थैतिक गतिज और घुमाव शक्ति का एक साथ होकर प्रदूषण नियंत्रण होना आदि. यही है, नदी तत्व ज्ञान रूप के तेज प्रकाश से अज्ञान जनित विभिन्न कर्मों से निवृत होते सुख चैन के शांति मार्ग पर अग्रसर होते रहना.