‘यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् । उच्छिष्टमयि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्’ ।। गीता: 17.10 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह
भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
शरीर के विभिन्न अंगों, इन्द्रियों
से शक्ति का निस्तारण, रक्त-संचार की तीव्रता, कलेजे की धड़कन, शरीर की कम्पन्नावस्था कोशिका के आकाशीय स्वरूप
पर आधारित है. अतः जिह्वा का लहलहाना, स्वाद की तड़प, जिह्वा से निस्तारित होती
तरंगें, इसकी कोशिका की आकाशीय व्यवस्था, संकलित शक्ति है जिसका रिजोनेन्स
अधपका, रसरहित, दुर्गंध, बासी व उच्छिष्ट भोजन से होना सत्यापित करता है कि पुरुष अशांत
शक्ति का अभ्यासी पूर्व जन्मों में था.
गंगा कहती है :
मानव जैसे अपने जिह्वा की संरचनात्मक गुणों के तहत उससे निस्तारित होते रहने वाली शक्ति तरंगों के चारित्रिक आवृत्ति एवं आयामों से बाह्य पदार्थों को अपनी ओर आकृष्ट करता है, उसी तरह मेरा सर्पाकार पथ, केन्द्राप्रसारी बल के तहत विभिन्न आयामों की वृताकार वेग, सेकेण्डरी सरकूलेशन को जन्म देती है. जिसके तहत बालूक्षेत्र का जन्म और विकास निरंतरता से होते रहता है, मेरे शरीर की वक्रता बढ़ती रहती है, नतोदर किनारे का क्षरण होता रहता है और मेरी प्रवाह रेखा सिकुड़ती और फैलती रहती है. इसी से मेरा उन्नतोदर किनारा ऊँचा और फैलता व प्रवाह को उच्च कम्पन्नावस्था में रखता है जहाँ पर नदी के समस्त अवसादों की व्यवस्था की विभिन्न शक्तियां विद्यमान रहती हैं. यही है, मेरे कम्पन्नावस्था में रहने वाले तामसी शक्ति प्रवाह क्षेत्र का मूल्यांकन कर इसको अवसाद व्यवस्था में उपयोग करना.