विस्तरेणात्मनों योगं विभूतिं च जनार्दन ।। भूयः कथय तृप्तिहिं श्रृण्वतो नास्ति मेअ्मृतम् ।। गीता : 10.18 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे जनार्दन ! अपनी योग शक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तार पूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
योगं अथार्त योगशक्ति को, जोड़ने की शक्ति को तथा आकर्षण शक्ति को नियमित आकार के सूक्ष्म और वृहत शरीर में आकर्षण विकर्षण केन्द्र को परिभाषित करता है. अतः सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वैसा कोई क्षेत्र नहीं जहां किसी न किसी रूप की शक्ति तरंगे उपस्थित नहीं हो. यही है, हमारे शरीर के रक्त शक्ति संचार जैसे भगवान के, ब्रह्म के शरीर ब्रहमाण्ड में शक्ति के संचार का होते रहना. उसी तरह असंख्य सूर्य, तारे व नक्षत्र आदि परब्रह्म की विभूतियां, विभिन्न तरहों की शक्ति तरंगों को छोड़ने वाले शरीर ऊर्जा विकिरण प्रणालियां
हैं. इन्हीं योग शक्ति को और विभूतियों को भगवान के अमृतमय वचन द्वारा अर्जुन विस्तार से सुनना चाहते हैं.
गंगा कहती है :
गंगा की ‘योगशक्ति’ स्वयं परब्रह्म का उद्धोष, ‘श्रोताशामस्मि जाह्न्वी’,दृढ़ता की विल्क्षणता से प्रतिष्ठित करता है. यही है, जीवंतता के उद्गम संतुलित रासायनिक अवयव मिट्टी का लबालब ऑक्सीजन रूप से वायु, स्थैतिक, गतिज तथा तापीय ऊर्जाओं की विभिन्न शक्तियों और विशाल बेसिन बाढ़क्षेत्र, मुख्यधारा सहित आकाशीय क्षेत्र में अमृत स्वरूप प्रचुर जल को एक साथ जोड़ते हुए निरंतरता से भारत के एक विशाल धराधाम क्षेत्र के समस्त महान समतल के सूक्ष्म और वृहत, बाहरी और भीतरी, समस्त जल स्त्रोतों को समेटती नदियों से संगम ‘अविर्लता और निर्मलता’ से करते हुए वातावरणीय संतुलंता का निर्वहन करना ही ‘गंगा की योगशक्ति’ है. गंगा की इस संकलन शक्ति के तहत सतही भूजल, वायुमंडलीय, आद्रता आदि से समस्त जल, थल व नभ जीवों को जन्म पालन पोषण संस्कार सहित योग्य मानव को मुक्ति देना ही गंगा से शक्ति प्रवाह का होना ‘गंगा की विभूतियां’ है.