सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।। गीता : 17.18 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
जो तप सत्कार, मान और
पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखंड से किया जाता है,
वह अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप यहाँ राजस कहा गया है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
‘तप’ कोशिका को रेखांकित करते
संघनित करने को कहते हैं. कोशिका का यही स्वरूप शक्तिकारक है. ‘तप’ जितना ही निःस्वार्थ होता है, कोशिका उतनी ही संघनित होती है.
यदि स्वार्थ युक्त तप है, तो कोशिका पूर्ण संघनित हो नहीं सकती, एक कोशिका से
दूसरे कोशिका के बीच में जगह रह जाएगी, जिस कारण शक्ति अपने पूर्णता की स्थिति को
प्राप्त नहीं कर सकेगी. यह उसी तरह होता है, जिस तरह चावल में धूल कणों के कारण
चावल ठीक से पक नहीं पाता. यही है, स्वार्थ से तप, स्वभाव के कारण या दिखावे के लिए
करना. यही कारण है, कि ऐसे तप का फल खट्टा मधुर और न्यून प्रभाव का होता है. इसे
ही भगवान राजसी-तप कहते हैं.
गंगा कहती है :
बड़े-बड़े डैम और बैरेज
तुम्हारे मनःकल्पित उद्देश्यों, पावर प्रोडक्शन, सिंचाई जल सप्लाई आदि कार्यों के
निमित्त होते हैं. इन कार्यों से भूस्खलन, रिजर्वायर में मृदा का जमाव, रिजर्वायर
जल से नदी जल का प्रदूषण, नदी में मिट्टी-बालू का जमाव, बाढ़-कटाव-प्रदूषण की
दिन-प्रतिदिन बढ़ती समस्याओं के साथ डैम-बैरेज की दिन-प्रतिदिन क्षीण होती क्षमता
का होना है. अतः तुम्हारे ये कार्य ‘राजसी’ हैं.
गीता (2.60) सत्यापित करती , भारतके प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ‘स्थितप्रग्य’ हैं : (6) :
इन्द्रियाणि प्रमाथीनी, प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ, उद्दिग्नता से आन्दोलित टर्बुलेन्स उत्पन्न करने वाली, थरथर कपानें वाली निवृत्ति इन्द्रिय भोग के संयमित रस का प्रभाव मन की उद्दिग्नता को बल पूर्वक तरंगायित करने वाली कार्य करने की दिशा को, इसके तौर-तरीकों को उठने-बैठने-बोलने की एकरूपता की शालीनता को बदल डालने वाली, श्री नरेन्द्र मोदी को विकटतम से विकटतम परिस्थिति में उनके स्थिरता गम्भीरता और शालीनता को टश से मश नहीं कर पाती, इससे यह प्रतिष्ठित होता है, कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी स्थितप्रग्य हैं.