कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।। केषु केषु च भावेषु चिन्त्योअ्सि भगवन्मया: ।। गीता : 10.17 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे कृष्ण ! हे परम योगी ! मैं किस तरह आपका निरंतर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूं ?
हे भगवान, आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाए?
श्लोक की वैज्ञानिकता :
विद्याम् अहम् “मैं जान सकूँ” यह कोशिका की स्थिति को परिभाषित करता है. परिचिन्तयन चिन्तन करता हुआ, कोशिका को रूपांतरित स्थिति में रखता हुआ, कोशिकाओं को उन्मुख
स्थिति में रखते हुए प्रतिष्ठित करता है. अत: कोशिका की निर्धारित व्यवस्था को कोशिका से स्वरूप का निर्धारण ज्ञान शक्ति है और इस निर्धारित स्वरूप की स्थिरता ज्यादा देर तक बनाए रखना ही “ध्यान” है और इस ध्यान की स्थिति की निरंतरता ही ध्यान, ज्ञान व योग है. इस तरह शक्ति समृद्धि स्थिति की निरंतरता से बने रहना ही ईश्वरीय शक्ति को प्राप्त करना है. अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से यही पूछ रहे हैं कि आप के किन-किन स्वरूप की कोशिका व्यवस्था को हृदयस्थ करूं, जिससे परब्रह्मरूप आप को जान सकूं.
गंगा कहती है :
राजा के प्रभुत्व धन-वैभव की समृद्धि एशो आराम की तल्लीनता से उत्पन्न कोशिका का जड़त्व राजा भागीरथ और राजा शान्तनु को तिल मात्र भी विचलित नहीं कर सका. यही है, कोशिका की प्रचंड दृढ़ता से तीक्षण शक्ति की अविरल प्रवाह का ब्रह्म रूप स्वयं को ब्रह्मरूप में रूपांतरित करना, एक भीतरी बिन्दु कोशिका का दृढ़ता से निर्मित केन्द्र, पोल और दूसरा बाहरी पोल का लक्ष्य होता है. यही है, भाव आधारित निरंतर के चिन्तन से राजा भागीरथ द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाना और राजा शान्तनु का गौतम बुद्ध बनना. यही है, गंगा की जितनी समझ उससे उतनी प्रवलता से लगाव जुड़ाव, गंगा का कुछ ज्ञान नहीं होना व न ही कुछ ध्यान होना बिलकुल उसी प्रकार है जैसे गंगा और नाले में कोई अन्तर नहीं समझना. जिस तरह असि नदी और अस्सी नाले में कोई अन्तर नहीं समझना.