क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शाश्वच्छान्ति निगच्छति ।। कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्तः प्रणश्यति ।। गीता : 9.31 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शांति को प्राप्त होता है, हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
क्षिप्रं-भवति-धर्मात्मा, सोने को सुनार धू-धू जलती भट्टी में बार-बार जलाते हैं तथा हथौडे से विभिन्न कोणों में लगातार बारंबार पीटते-पीटते
है, तब कहीं जाकर के दिव्य सुन्दर कान की बाली किसी कुरुपा की सुन्दरता को निखार उसे सुहागिन प्यारी दुल्हन बनाते और अपने दुल्हे के साथ आनंदमय जीवन भोगने के
सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करती है. सोना
जलने पीटने के बाद गहने का स्थायित्व प्राप्त करता है और फिर सोने से भगवान का मुकुट बनना, उससे स्थायी शांति प्राप्त होना और उसका कभी नाश नहीं होना है.
गंगा कहती है :
दुष्ट आत्माएं भी यदि प्राणान्त के समय मुझे माँ के रूप में स्वीकार कर लें या सिर्फ किसी रूप में स्मरण कर लेता या कोई श्रद्धावान उसके मुँह में एक बूँद भी गंगाजल दे देता है तो मैं उसका भवसागर से उद्धार कर देती हूँ. यह है, न्यूनतम भक्ति के तहत मेरी प्रवल प्रेम शक्ति की अविरल प्रवाह का होना. अत: मेरी धारणा और उद्देश्य मात्र यह है की मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी सम्पूर्णता से रक्षा करते हुए
तुम्हारा उद्धार करूँ और अपने यहाँ आने के उद्देश्य की पूर्ति को पूर्ण करूँ. तुम इसे समझ लो और मेरी भी अपनों की ही तरह रक्षा करो.