मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। गीता : 10.9 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ:
मुझमें चित्त रखने वाले तथा मुझ में प्राणों को अर्पण करने वाले भक्त जन आपस में मेरे गुण, प्रभाव आदि को जानते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य, निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मुझसे ही प्रेम करते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
मच्चित्ता मद्गतप्राणा, मन और प्राण को मुझमें
मन और
इंद्रियों के साथ मेरे भीतर समा गया. यह मनरूपी स्वतंत्र कोशिकाए (जो इन्द्रियों की नहीं हैं ) और विभिन्न इन्द्रियों की अपनी-अपनी विभिन्न कोशिकाओं से समय से बललती शक्ति तरंगों को समेटते हुए स्थिर न्यूकलियस पर समग्रता के साथ तीव्र से शून्य आवृति तरंग में केन्द्रस्थ करना होता है. यह ज्ञान
उसे पूर्ण दृढ़ता और अविरलता से जानने के अभ्यास पर आधारित है. इसमें यदि निरंतरता नहीं हो तो स्प्रिंग की भांति कोशिका जस की तस अपने मौलिक स्थान में तीव्र आवृति के साथ पुनः लौट आयेगा. यही कारण होता है कि भजन, कीर्तन, चिंतन, चर्चा तथा परिचर्चा की आवश्यकता बनी रहती है. यही है, कोशिका को अधिक से अधिक देर तक परब्रह्म की चर्चा-परिचर्चा करते हुए मग्न रहते हुए सीधा रखना और शक्तिवान हो शांत और संतुष्ट बना रहना.
गंगा कहती है :
मेरी चर्चा-परिचर्चा अनादिकाल से देवताओं, महर्षियों, वेद-पुराणों आदि ने विभिन्न रूपों से इसलिए की क्योंकि मैं वह ब्रह्माणी हूँ जिसका अमृत जल 12-14 पी.पी.एम तक ऑक्सीजन रखने वाला, कभी नहीं सड़ने वाली, पूरे भारत को पेय जल प्रदान करने वाली, भोजन, संतुलित वातावरण से तेज संस्कार देने वाली और अन्त में मुक्ति प्रदान करने वाली साक्षात ब्रह्माणी भगवती हूं. तुम्हें अभी मेरी चर्चा-परिचर्चा की जरूरत है जिसमें प्रमुख प्रश्न हैं - (1) सूखती व मैली कुचैली होती जाती गंगा का निदान कैसे हो ? (2) निरंतर आती बाढ़ का निवारण कैसे हो? (3) कटते गाँव व विलुप्त होती सैकरों-हजारों एकड़ उपजाव भूमि का संरक्षण कैसे किया जाए? (4) यन्त्र, तंत्र व बालू के विशाल शक्ति क्षेत्र का उपयोग कैसे किया जाए? कहाँ, किसके लिये व कैसे उपयोग किया जाये ? (5) अन्तः और बाह्य-प्रवाह की संतुलंता और मालवाहक जहाज का परिवहन कैसे हो? आदि गहन चर्चा का विषय हैं.