अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ।। गीता : 17.1 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
अर्जुन बोले - हे कृष्ण !
जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्याग कर श्रद्धा से युक्त हुए देवादि का पूजन करते हैं,
उनकी स्थिति फिर कौन सी है? सात्त्विकी अथवा राजसी किंवा तामसी?
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
शास्त्रविधि का ज्ञान
नहीं होने का अर्थ इस जन्म में
शास्त्रों के संकलित ज्ञान भंडार से अपने जन्म जात ज्ञान को, कोशिका की संस्कारी पूर्व
जन्म का आया हुआ व्यवस्था से रूपांतरित नहीं किया, होता है. शिक्षा मस्तिष्क तंत्र की कोशिकीय व्यवस्था के
पुनर्रचना की तकनीक है. ब्रेन की कोशिका
की व्यवस्था का सम्पूर्णता और दृढता से होना, आनुवंशिक होना या विद्याध्ययन कर इसे
ध्वनात्मक बनाना है. यह कितनी
ही तरहों का हो सकता है. अतः ब्रेन सेल का जन्म से व्यवस्थित होना ही संस्कार
कहलाता है. मस्तिष्क कोशिका प्रणाली के ऐसे 100% अभिविन्यास के रूप में ही चर्मोत्कर्ष ज्ञान शक्ति को
परिभाषित करता है. यह कई जन्मों की संकलित शक्ति है. यही अर्जुन, भगवान श्री कृष्ण
से पूछते हैं कि श्रद्धा भक्ति दिखाने वाले अनन्त तरह के पाखंडी लोग हैं, आप किसको
क्या महत्व देते हैं?
गंगा से प्रश्न :
हे मातेश्वरी ! साधु, संत, महात्मा, ज्ञानी और विवेकी, लोभी, पाखंडी, धूर्त विभिन्न प्रकार से आपसे व्यापार करने वाले और संसार को दिन-रात ठगने वाले सभी कुंभ में अपने बंधुओं के साथ मात्र यह दिखाने के लिए कि “मैं गंगा भक्त हूँ” स्नान के लिए पहुंचते है. आप इन समस्त स्नानार्थियों को कैसे अलग-अलग फल देतीं है?