त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। गीता 16.21 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के
नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं. अतएव
इन तीनों को त्याग देना चाहिए.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
समस्त इन्द्रियों से निस्तारित
होते रहने वाली विभिन्न दुर्गंधों तथा इनके उत्तेजित और सम्मिश्रित कम्पनों एवं
जलन से युक्त पारिस्थितिकी में तड़पता हुआ विकृत शरीर “नरक” है. इसका कारण जीवन को इन्द्री भोग के लिए होने को समझते हुए
शरीर को मथते रहना है और इस कामाग्नि की प्रचंड इच्छा की अतृप्ति की स्थिति में
क्रोधाग्नि में जलना तथा सम्पूर्णता से
शरीर को निचोड़ते हुए समस्त आत्मीय शक्ति को प्रोटोन को न्यूट्रॉन से अलग करके इसे इलेक्ट्रान के पीछे तड़पते हुए अपनी स्थिरावस्था को गवांते
हुए न्यूक्लियस को ध्वस्त करना होता है. यही है, आत्मा का अधोगति में न्यूट्रॉन के
साथ नहीं रह कर इलेक्ट्रान के पीछे हो जाना. पूरे पारंपरिक संरचनाओं नियमों को
ध्वस्त करते हुए अशांति के अथाह सागर में डूब जाना ही नरक है . यही है, आत्मा का नरक में जाना. ऐसे हैं काम तथा इससे उत्पन्न क्रोध और इन सबकी जड़ है काम का लोभ. इन्हें ही
भगवान त्यागने को कहते हैं.
गंगा कहती है :
धर्मस्थली हरिद्वार में “भीमगोडा-बैरेज” के बनने के समय पंडित मदनमोहन मालवीय जी के
आत्मा की तड़प ने मानों पूरे वातावरण को आंदोलित कर दिया था. वे समझ गये थे कि गंगा
अब लोगों के “काम-क्रोध-लोभ” की उमड़ती ज्वालामुखी से मिटटी में मिलने वाली है और वे समझ गए
थे कि भारत के संस्कार का डूबना विश्व के लिए घातक होगा. इसलिए उन्होंने देश के
राजा महाराजाओं की सभा बुलाकर गंगा के प्राण रक्षा के उपाय किए पर उन्होंने बिजनौर,
नरौरा व फरक्का आदि गंगाजल दोहक
और हजारों मल-जल के स्त्रोत गंगाजल शोषण की कल्पना नहीं की थी. यही है, कामाग्नि
की प्रचंड ज्वाला का बढ़ते जाना तथा संस्कार, भक्ति, शक्ति व मुक्ति के द्वार का बंद होते जाना और
चहुंमुखी अशांति का फैलना. अंतः सर्वत्र असत्य, झूठ व धोखे का आचरण होना ही
नार्किक होना होता है. इनसे बचने का उपाय मालवीय जी ने किया था. यही करने की
शिक्षा गीता देती है.