पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।। सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ।। गीता : 10.24 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
‘पुरोधसां’ पुरोहितों से, विद्वानों से सरलता सहित दृढ़ता से व्यवस्थित कोशिकाओं से, मृदुल शांति शक्ति तरंगों के निस्तारण से वातावरणीय संतुलंता का निर्वहन करने वाले ‘पुरोधसां’ कहलाते है. इन ‘पुरोधसां^ का स्वर्ग में देवता इन्द्र के राज्य में मुखिया ‘बृहस्पति’ परब्रह्मरूप है. यह ज्ञान की प्रवलता से हर वस्तु
की समुचित महत्त्वपूर्ण व्यवस्था ही ब्रह्म के होने को परिभाषित करता है. यह ज्ञान ईश्वर रूप को प्रतिष्ठित करता है. सेनापतियों में स्कन्द, कार्तिक, शिव-पार्वती-बालक की सेना व्यवस्था में दक्षतापूर्णता, तकनीकी निपुणता की आवश्यक आवश्यकता ‘ब्रह्म’ को परिभाषित व निरूपित करता है. स्कन्द के सेनापति की दक्षता तकनीकी कौशलता ब्रह्मत्व का परिचायक है इसे प्रतिष्ठित करता है. जलाशय में ब्रह्म का समुद्र होना,
विभिन्न पदार्थ और शक्ति स्त्रोतों को समेंटना व
आत्मस्त होना ही ईश्वरीय प्रबलता को प्राप्त करना है.
गंगा कहती है :
‘पुरोधसा’ अथार्त पुरोहित विद्वान मंत्री प्रधानमंत्री, इन्द्र का सलाहकार बृहस्पति आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक आदि मुद्दों का केन्द्र, प्राकृतिक सन्तुलन की परिस्थिति का ताप, दबाव व आद्रता पर केन्द्रित सलाह देकर वर्षा की सुदृढ़ व्यवस्था से समस्त जीवों का पालन पोषण कर ‘स्वर्ग’ को प्रतिष्ठित करते हुए इसी आधार पर प्राकृतिक समस्त जल संसाधनों का, संरक्षण का प्रथम स्थान होना ही इन्द्र के स्वर्ग की अवधारणा है. सेनापतियों में ‘स्कन्द’ वातावरण की तकनीकी स्थिरावस्था को सम्पूर्णता से समझ कर संरक्षित करने को कहते हैं और जलाशयों में समुद्र विशाल की विशालता उसके कार्य गुण और उसकी व्यवस्था की सुदृढ़ता को परिलक्षित करता है. अत: मात्र हमारी व्यवस्था की ऊँचाई, भारत की ऊंचाई है.