अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोअ्यशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ।। गीता : 10.4-5 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
निश्चय करने की शक्ति, बुद्धि, यथार्थ-ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों को वश में करना, मन का निग्रह, सुख, दुःख, उत्पति, प्रलय, भय, अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति तथा अपकीर्ति प्राणियों के ये नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
बुद्धिज्ञानसम्मोहः यशोअ्यशः ये समस्त बीस प्रकार के प्रकट होने वाले भाव विभिन्न कार्यों के परिणाम स्वरूप संकलित शक्तियां व गुण हैं. यह ठीक उसी प्रकार है, जैसा जिसको भोजन, वैसी शक्ति, बुद्धि, विवेक आदि परिणाम व प्रतिक्रिया को परिभाषित करते हैं. अतः कोशिका बल संचालक है और शरीर क्रिया व परिणाम देने वाली स्वचालित रूप से ऑपरेटिंग मशीन है, यही प्रतिक्रिया स्वरूप किस भावना से युक्त किस कार्य का क्या परिणाम होगा इसको सिर्फ और सिर्फ वही परब्रह्म ही जानता है. इसे ही भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं.
गंगा कहती है :
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान और यज्ञ आदि मुफ्त प्रदान करने की शक्ति मात्र मुझे भाव से दृश्यवलौकित करने से संभव है. इस भावना की प्रवलता दिन-प्रतिदिन सूखी, मैली, कुचैली, दुर्गंध करती मेरी धारा से मिटती चली जा रही है. यह दृढ संकल्पित तथ्य है कि शक्ति की ही पूजा होती है. ज्यों-ज्यों तुम हमारे गुणों को मिट्टी में मिलाते चले जाओगे मैं तृष्कृत होती चली जाऊँगी और तुम संस्कार विहिन महान विध्वंशकारी लोग होते चले जाओगे, तब तुम धनवान हो कर क्या करोगे? अतः यह समझो मैं ही भाव-प्रदायिनी हूँ.