अमृत सलिला गंगा, आज विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है. वह गंगा जो भारत की सभ्यता को हजारों वर्षों से संरक्षित कर रही थी, आज स्वयं संरक्षण की कगार पर खड़ी होकर अपने अस्तित्व को बचाए रखने की गुहार लगाती प्रतीत हो रही है. विकास के नाम पर गंगा जैसी पवित्र नदियों की अविरलता और निर्मलता को नष्ट कर देने की हमारी मानसिकता निश्चय ही बुद्धिमत्ता की श्रेणी में तो नहीं आती.
क्यों बिगड़ गया गंगा का स्वरुप :
अत्याधिक पर्यटन विकास के चलते हमें ज्यादा बिजली, होटल, सड़क, परिवहन चाहिए और इन सभी से गंगा एंव हिमालय की नाजुक पारिस्थितकी तंत्र पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पडे़गा, जिसकी भरपाई हम राजस्व-लाभ से कभी नहीं कर सकते हैं। सदियों से बहती हुई, अथाह प्रेरणा- स्त्रोत गंग-धारा की गरिमा एंव पवित्रता को क्या हम केवल पैसे से माप सकते हैं? नदियां हमारी सृष्टि की रचना चिन्ह हैं- लाखों-हजारो साल पुरानी। गंगा नदी उतनी ही प्राचीन है जितनी वह भूमि, जिसे वह सींचती है। इन्हें जोड़-तोड़ कर हम इन्हें बिगाड़ने का काम कर सकते हैं- सवांरने का नहीं।
सम्पन्नता विहीन होती आधुनिक भारत की नदियां :
इस संदर्भ में न तो विस्तृत आंकड़ों की आवश्यकता है और न ही बहुत अधिक शब्दों की. गंगा एवं अन्य नदियों की असल कहानी को जानने के लिए की गयी नदी- यात्राओं से प्राप्त अनुभवों ने भी यही तो बताया कि किस प्रकार अंध- नवीनीकरण के दौर ने, अति स्वार्थ की इच्छाओं ने हमारी सांस्कृतिक गरिमा का विशेष प्रतिरूप, हमारी नदियों, के साथ खिलवाड़ किया है. भारत से बाहर की कुछ प्रमुख नदियों को भी समझने का मौका मिला- फ्रांस की सीन, इग्लैंड की टेम्स, यूरोप की डेन्यूब, अमेरिका की पोटोमेक, मिशिगन, कोलोराडो, हडसन, आदि नदियों को जानने के बाद परिणाम यह निकला कि भारतीय नदियों से उनकी प्राकृतिक संपत्ति छीन कर हमने उन्हें केवल मलिन ही नहीं, अपितु सम्पन्नता विहीन भी बना दिया है।
और अब नमामि गंगे का शोर :
यह बड़े दुख की बात है कि बांधो
और टनलों से निकलकर हमारी गंगा अब वही गंगा नहीं रह गयी है। माँ गंगा की रक्षा
हमारी अस्मिता की रक्षा है। कितने लोग इसे समझ पा रहे हैं कि माँ गंगा का अविरल व निर्मल
प्रवाह समग्रता में बना रहे हैं। शायद कुछ मुट्ठी भर लोग, और बाकी बचे जनमानुष
केवल “नमामि गंगे” का शोर सुनकर अपने अपने अनुसार गंगा को वैचारिक धरातल में प्रवाहित होते देख
कर ही अपने कर्तव्यों से इतिश्री करके बैठे हैं. यह बात शायद भ्रमित दृष्टि या उपभोक्ता
दृष्टि के कारण हम सब महसूस नहीं कर पा रहे हैं - गंगा को मात्र एक भौतिक नदी समझ
बैठे हैं। नदियां चाहे वह गंगा हो या गंगा में मिलने वाली अन्य सहायक नदियां, सभी
ने पोषण और संरक्षण का कार्य किया है माँ की तरह। यह संबंध शायद इसी भारतवर्ष के
मनीषियों, ऋषियों ने अनुभुति किया। आज हम सब उसकी उपेक्षा कर रहे हैं।
भारत की सभी नदियां प्रदूषण ,शोषण, और
अतिक्रमण से पीडि़त हैं। वर्ष 2020 तक गंगा को निर्मल करने की घोषणा हमने कर रखी है। जब तक गंगा जल गोमुख से गंगा
सागर तक गंगा में नही बहेगा तब तक गंगा कैसे निर्मल होगी? समग्र गंगा
से गंगत्व का संरक्षण तथा इसमें निर्मल धारा को प्रवाहमय बनाये रखने का अभियान की
दरकार आज अधिक है।
अथाह भौतिकवाद के सागर में डूबकर अपनी गंगा को बिसरा चुके हैं हम :
वर्तमान में समाज के हर क्षे़त्र के व्यावसायीकरण की प्रकिया में हमने अपना मानसिक और भावात्मक संतुलन बहुत हद तक खो दिया है। बहुत कुछ बे-जरूरत की चीजें हमारे लिये आज जरूरी हो गयी हैं। गंगा की अविरलता, निर्मलता या समग्रता का प्रश्न तो दूर हम व्यक्तिवादी अतिरेक से लिप्त हो कर अपने घर आस पास की गंगा या सार्वभौम दृष्टि की ज्ञान-गंगा या वैचारिक मान्याताओं को भी दार्शनिक परिभाषा से उलझा कर विकास की नई परिभाषा गढ़ रहे हैं, जिसके मूल्य व्यक्तिवादी और निजी उपलब्धियों को महत्व देने वाले हैं। विकास की इन नव मान्यताओं के साथ गंगा विरोधी घोर-व्यक्तिवादी समाज का ही मेल खा सकता है। हमारे सामूहिक संकल्प-शक्ति में निश्चय ही ग्रहण लगा है, तभी तो हम व्यक्तिक विकास के नाम पर अपनी युगों पुरानी सभ्यताओं के महत्त्व को भूलकर अपनी ही नदियों के जीवन चक्र का विनाश करने पर आमादा हैं.
गंगा मात्र नदी नहीं, अपितु भारत की रक्त धमिनी है :
केवल सामूहिक संकल्प शक्ति से ही भारतवर्ष की महान गरिमामयी संस्कृति की सूचक माँ गंगा के अस्तित्व को धरती पर बचाया जा सकता है। भारत का अस्तित्व गंगा के अस्तित्व से है। गंगा भारत भूमि की सर्वप्रधान रक्त धमिनी हैं, जिसके धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व पर कोटि-कोटि भारतीय विश्वास करते हैं। विश्व में अन्यत्र ऐसा कौन सा भूखंड होगा, जहां नदियों का अत्याधिक बाहुल्य दिखाई देता हो।
ऐसे पवि़त्र गंगा में प्रतिदिन एक अरब लीटर मल-मू़त्र और औद्यौगिक अपशिष्ट बहाये जाना पवि़त्रता के साथ आस्था को समाप्त करने की प्रकिया है। नैसर्गिक विरासत, ऋषि-मुनियों, ज्ञानी-महर्षियों की तपस्थली व कर्मभूमि, सनातन धर्म, प्राचीन दर्शन आदि हमें विरासत में मिली। गंगा जैसे नदियों ने हमारा संपोषण किया- लेकिन, भावी पीढ़ी के लिए विरासत में हम क्या छोड़ना चाहते हैं ? किस मूल्य पर विकास चाहते हैं ? आधुनिक विकास का अर्थशास़्त्र केवल भौतिक खपत से होने वाले लाभों की गणना करता है- क्या आधि-व्याधियों से जर्जर सिंथेटिक- संस्कृति से हम अपने आपको जोड़ना चाहते हैं? यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि इन बुनियादी सवालों का बिना जवाब दिये ही हमारी वर्तमान पीढ़ी, तथाकथित बुद्विजीवी और नीति -निर्माता आदि गलत दिशा में आगे कदम रख रहे हैं।
गंगा पर विशाल परियोजनाएं- विकास की सूचक या विनाश की आहट :
यह कैसा विरोधाभास है- जो सबसे
श्रद्धेय है, उसका हम सबसे ज्यादा शोषण कर रहे हैं- अपने स्वार्थ के लिये। 300 से भी अधिक
बाधों की योजना बनाई गयी है, गंगा और उसकी सहायक नदियों पर- लाखों, सालों में
बनी नदियों को हम एक झटके के साथ बांध पर मोड़ कर या फिर नदी की नैसर्गिक क्षमता
से अधिक प्रदूषित कर विरासत में मिली नदी संस्कृति को ध्वस्त करने पर तुले हैं।
महान नदियां महान सभ्याताओं को
जन्म देती हैं। मानव- विकास की समस्त महत्वपूर्ण सभ्यताएं किसी न किसी नदी के तट
पर ही पली-बढ़ी हैं। मिश्र की सभ्यता का उदय नील नदी के तट पर हुआ। मेसोपोटेमिया
युफरेटस एंव टिग्रिस नदियों पर पनपी। यूरोपीय सभ्यता डेन्यूब नदी से उत्पन्न एंव
पोषित हुई। गंगा नदी उतनी ही प्राचीन है जितनी वह भूमि, जिसे वह
सींचती है। गंगा जैसी नदियों को धर्म और मोक्ष
का साधन माना है, गंगा नदी सिर्फ एक नदी नही है, वरन एक विशाल संस्कृति की जननी भी
है अगर हमारे पास पर्याप्त राजनति इच्छा शक्ति हो और हम सब ईमानदारी से, काम करें
तो गंगा का निर्मल, अविरल बनाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
सामूहिक संकल्पों से गंगा-
विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाई जा सकती है, परन्तु खेद की बात यह है कि जिस प्रकार
आज अति प्रदूषण के कारण गंगा से दुर्लभ जलचर व वनस्पति गायब होते जा रहे हैं, उसी
प्रकार कभी गंगा को अपने जीवन से भी अधिक प्रिय मानने वाले गंगा- पुत्र तथा गंगा
भक्त भी आज लुप्तप्राय प्रजाति का हिस्सा बनते जा रहे है।
हमने नदियों के सम्मान में
स्तुति गान और आरती तो खूब किये पर उसके अस्तित्व की रक्षा के लिये जरूरी कार्य को
लेकर धीरे-धीरे संज्ञा शून्य व उदासीन होते गये। कई प्रयासों के बाद भी गंगा का
संकट अभी तक ठीक से सरकार या जनता द्वारा सम्बोधित नही किया गया है, अभी तक गंगा
आन्दोलन जनमानस के चेतना से परे है।
अमेरिका और भारत में नदी योजना शैली में भारी अंतर :
अमेरिका |
भारत |
पर्यावरण संरक्षण ऐंजेसी (EPA) नदियों की सफाई व संरक्षण के लिए पूर्णतरू जिम्मेदार |
ऐजेंसियों की बहुलता - पर्यावरण मंत्रालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड] NGRBA, NRCD आदि |
दूरदर्शिता, ईमानदारी, पारदर्शिता के साथ योजनाओं का कार्यान्वयन |
दोषपूर्ण नीतिया एंव योजनाओं के क्रियान्वयन में अनियमितता तथा हड़बड़ी |
सख्त कानून एंव नीति निर्धारण |
कानून के अनुश्रवण में ढ़ीलापन एंव निगरानी का अभाव |
कई उद्योग प्रदूषण नियंत्रण कानून की अनदेखी करने के कारण बन्द किये गये |
कानून के अनुश्रवण में ढ़ीलापन एंव निगरानी का अभाव |
नदी कार्य योजनाओं में श्रेष्ठ वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ, योग समाजसेवियों और आम जनता का योगदान |
नदियों के प्रति समाज एंव आम नागरिको की संवेदनहीनता और उदासीनता |
पर्यावरण मानकों का कड़ाई से निगरानी |
नागरिक निकाय एंव सरकारी संस्थानों द्वारा पर्यावरण मानकों की उपेक्षा |
स्वच्छ नदियों की दिशा में उठाए जाए ठोस कदम :
आवश्यकता एक जनक्रांति की :
आज हम सब विकास के परिणाम से
वाकिफ हैं। हमारी सुख-सुविधाओं में भले ही वृद्धि हुई हो, हमारे जंगल, तालाब, नदियां, पशु-पक्षी
सब त्रस्त हैं। ऐसा लगता है जैसे किसी ने हम सबों की बुद्धि को हर लिया
है- सर्वसम्मति का दौर है विनाश के लिए। पीछे मुड़कर देखें तो लगता है पिछले 30-40 वर्षो में
हमने अपनी विरासत, संस्कृति और प्राकृतिक संसाधनों को आधुनिकीकरण के बहाने, कहीं पीछे
छोड़ दिया है। हम सभी के आवेग, अतिरेक और आक्रोश में काफी इजाफा हुआ है। बुद्धिहरण के दौर का हिस्सा बनकर हम
दोहन, शोषण और अतिक्रमण की संस्कृति से अपनी सभ्यता का विनाश करने पर उतारू हैं.
नदियों को बिगाड़ने नहीं,
संवारने की आवश्यकता -
नदियों की साफ-सफाई का काम
हमारे अंदर की यात्रा है जो हमें परमात्मा तक पहुंचाएगी। पवित्र लक्ष्यों को
अपवित्र माध्यामों से नहीं प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए हम सबको अपने स्वार्थ
छोड़कर इस पवित्र काम में सहयोग देना होगा। हमारी दृष्टि और विश्वास, इस संसार
की रचना को परिभाषित करता है। हमारी गंगा और गोमती जैसे पवित्र नदियों को देखने की
दृष्टि क्या है? नदियां लाखों-हजारो साल पुरानी हमारी सृष्टि की रचना चिन्ह है,
इन्हें जोड़-तोड़ कर हम इन्हें बिगाड़ने का काम कर रहे हैं- संवारने का नहीं। हमें
ढ़ोग करने की जरूरत नहीं है। अगर हम नदियों से छेड़-छाड़ बंद कर दे तो नदियां
खुद-व-खुद एक साल में ही अपने आप को साफ कर लेगीं, बस हमें बिगाड़ने वाले काम बंद
करने होंगें।
जन आंदोलन में आए समग्रता -
अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा जैसे देश नदियों को बचाने हेतु सख्त कानून बना कर सत्तर और अस्सी के दशक में ठोस उपाय किया, जिसकी बदौलत आज उनकी नदियां साफ-सुथरी हैं। उनकी कुछ अच्छी चीजें हमारे लिये भी अच्छी हो सकती हैं। पूरी नदी बेसिन में समग्रता से काम करना होगा। सरकार की चेतना इसमें लाइये, आवेग, अतिरेक और आक्रोश से नहीं बल्कि प्यार और ईमानदारी से। एक ऐसी क्रांति जो परिवर्तन का रास्ता दिखाये और आगे विराट रूप ले। इसे पिपुल्स मुवमेंट बनाने की जरूरत है- उसे करने की व्यवस्था हो- करने का आर्गनाइजेशनल स्ट्रक्चर हो - रचनात्मक प्रयोग अगर सफल हुए तो उन्हें आगे बढ़ाने की व्यवस्था हो- इन सभी बातों पर हमारा सामूहिक चिंतन हो और हमारी सामूहिक भूमिका क्या हो, इस पर भी कुछ ठोस समाधान आगे निकल कर आये। याद रहे नदियों की बेहतरी के लिए उठाए गये ये शार्ट-कट समाधान भविष्य में कहीं नदियों का कुदरती स्वाभाव ही न छीन ले।
पर्यावरण वैज्ञानिक एवं समन्वयक,
गोमतीअध्ययन दलपर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ -बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रिय विश्वविद्यालय, लखनऊ