गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा। पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमों भूत्वा रसात्मकः।। गीता : 15.13 :
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
ब्रह्म-शक्ति का पृथ्वी में प्रवेश मूलतः सूर्य और चन्द्रमा की क्रमबद्धता से बदलती एवं रूपांतरित होती तारंगिक तापीय और प्रकाशीय ऊर्जाएं हैं. इनके तहत पंच-महाभूतों का निरंतरता से रूपांतरण, प्रकृति की क्रियाकलापें हैं, जिनसे समस्त भूतों, जीवों, वृक्षों, वनस्पतियों की उत्पत्ति विभिन्न शक्ति-ढ़ालों के तहत होती है. इस समस्त शक्ति-रूपान्तरण प्रक्रिया में, इनके बदलते ढ़ाल में, सूर्य के ताप में विशेष अन्तर लानें में, फोटोसिंथेसिस की क्रिया द्वारा आँक्सीजन के संवर्धन और कार्बनडाईऑक्साइड अवशोषण में, जल-रासायनिक अवयवों के नीचे से ऊपर के प्रवाह में चन्द्रमा द्वारा विशेष वातावरणीय संतुलितता स्थापित होती है. यही है चन्द्रमा की किरणों से वनस्पतियों का पुष्ट होना. इसी ब्रह्म शक्ति के रूपांतरण को भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं.
गंगा कहती है :
हिमालय वनस्पतियों
का महाभंडार है. हनुमान जी लक्ष्मण-बूटी लाने यहीं गये थे. हिमालय के इस विशिष्ट-गुण
का कारण, इनमें विभिन्न पदार्थों एवं शक्तियों के ढ़ाल के आयामों के कारण है, अथार्त विभिन्नतायें, शक्ति
सम्पन्न्ताएं हैं. इसका क्षरण भूस्खलन से तीव्रता से बढ़ता जा रहा है और भूस्खलन विभिन्न
जलाशयों में जल-स्तर के अन्तर से परिभाषित होता है. अतः वनस्पतियों एवं औषधियों का
भंडारण हिमालय में तभी संरक्षित रह सकता है, जब यहाँ की पारिस्थितिकी को न्यूनाधिक
बदला जाये. यही है हिमालय के सुचारू प्रबंधन के लिए सूक्ष्म संरचनाओं की आवश्यकताओं
का संरक्षण करना. इस प्रकार ये नदियां, पृथ्वी की सतह पर परिलक्षित होने वाली पृथ्वी
की भीतरी रसशक्ति को चलायमान रखते हुए पृथ्वी के समस्त जीव जगत को धारण करती है.
इन्हीं के कारण चन्द्रमा अपनी शक्ति से औषधियों एवं वनस्पतियों को पुष्ट करता है,
इसी कारण इन्हें संरक्षित किये जाने की अति आवश्यकता है.