गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्वजरा दुःखैर्विमुक्तो अमृतमश्नुते ।। गीता : 14.20 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
वह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप इन तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्व, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दृःखों से मुक्त होता हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
तीनों गुणों के उल्लंघन का अर्थ बुद्धि, मन और इन्द्रियों से किसी तरंग का निस्तारण एवम् अवशोषण नहीं होना है. अतः तरंगों का जहाँ से निस्तरण होता है, वहीं अव शोषण का बोध होता है. यही है कार्य शून्य और शक्ति अनन्त, किसी तरह से शक्ति में कोई क्षय नहीं. यही है न जन्म, न मृत्व, न रोग और न कोइ व्याधि, आधुनिक समय में योगी-राज तैलंगस्वामी जी महाराज हुए हैं. मैं ब्रह्म के शरीर का भाग यानि ब्रह्म हूँ, यही हैं समस्त दुखों से निवृति.
गंगा कहती है...
मुझसे मातृ भावना रखो, बच्चों को मां से लगाव जैसा है, जैसे मां के दूध के लिये बच्चा तड़पता है, माँ को नहीं देखने से होने वाली छटपटाहट, माँ के सुखते-मुर्झाते चेहरे से घबराहट, उसके बीमार होने से बैचेनी, बड़े-ऊँचे बाँधों को माँ का कारागृह समझना, भयावह जल निकासी को माँ के शरीर से रक्त शोषण जैसा समझना. यही है माँ के लिये पुत्र-स्नेह, यही है आत्मवत सर्वभूतेषू और यही है गंगा को ब्रह्माणी समझना.
विशेष आग्रह :
आज महाष्टमी, काल-रात्रि है, यह दृढ़ संकल्पित होने का महान-पर्व है. आप मातेश्वरी-गंगा को अपने शरीर जैसा मानकर सम्पूर्णता से संरक्षित करने के लिये दृढ़-संकल्पित हो कर कार्य कीजिए.
आपसे निवेदन है कि आप महामना एमआईटी - फॉर गंगा-मैनेजमेन्ट की सदस्यता लें और अपना पोस्टल-ऐड्रेस भेजें.