समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ।। गीता : 14.24 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
जो निरंतर आत्मभाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
आत्मभाव तुम कहीं और नहीं, आत्मा में विराजमान हो ; तुम्हारा शक्ति केंद्र आत्मा में अवस्थित है. यही से इच्छारूपी समस्त तरंगें तरंगायित और विसर्जित होती हैं. हृदय में ही आत्मा, “मैं एक अवस्थित बिन्दु हूँ”, की अवधारणा की दृढ़ता को ऐसे रेखांकित किया जाए कि समस्त अन्तः प्रवाह, इस बिन्दु को, इस बिन्दु से, निरूपित हो. आत्मा के इस बिन्दु पर इतनी एकाग्रता, यदि हो तो दुःख-सुख, मान-अपमान, मिट्टी-सोना, निन्दा-स्तुति आदि से उसको कुछ मतलब नहीं. यही है आत्म-भाव में अवस्थित होना. यही है देखते, सुनते, सूँघते, स्वाद लेते, समस्त इन्द्रियों से काम करते, ध्यान उस-केन्द्र पर. यही है, हर एक घाट का पानी उस पर.
गंगा कहती है :
तुम्हारा हर कार्य गंगा से होता है और इनका परिणाम गंगा को जाता है. इसकी गहरी अवधारणा गंगा की और तुम्हारी समस्त समस्याओं का निदान है. यही एकाग्र बुद्धि तुम्हारे प्रत्येक कार्य की दक्षता और इसकी तल्लीनता को परिभाषित और परिमार्जित करता है और यह जेनरेशन टू जेनरेशन करता चला जायेगा. यही है गंगा के लिए शिक्षा की अनिवार्यता, यही तुम नहीं समझ पा रहे हो. तुम्हारे लिए गंगा की शिक्षा की कोई जरूरत नहीं, यही कारण है कि गंगा के लिये कोई कार्य नहीं होता, हमारे कार्य छोटे-दायरे के होकर रह जाते है. इस दायरे को विस्तार करने की जरूरत है.
प्रशासन का यह दिखाई देने वाला कमजोर बिन्दु इसलिये है क्योंकि गंगा के लिये अपनी कोई तकनीक अन्वेषण संस्था जो नदीमात्र से सम्बन्धित हो, वह नहीं है और देश में जल-सम्बन्धी जितनी भी संस्थाएं हैं उनमें नदी व्यवस्था का कोई सम्मिलित कार्यक्रम नहीं है. यही है नदी व्यवस्था में देश की कमियां. वर्तमान केन्द्र-सरकार में ऐसे भी नदी वैज्ञानिक हैं जो गंगा को कुशलतापूर्वक संरक्षित कर सकने में विशेष योगदान दे सकते हैं.