माँ गंगा की कृपा से शरीर-त्यागते समय समस्त जीवन की संकलित दूषित भावनायें विलुप्त हो जाती है. इन्हें प्रणाम है.
“भावविभोर-काशी मध्य ब्रह्म-भाबिनि-गंगा”
वर्तमान, मात्र, अभी, इस क्षण, केन्द्रस्त-उसपर-ध्यान, झलक की भावना, शक्ति-संचयन-सिद्धान्त, परम् ज्ञान है.
शरीर-त्यागते समय जिस-जिस भाव का स्मरण करोगे, उस भाव को अगले-जन्म में प्राप्त करोगे, गीता का सार सुनों, गंगा कहती है..
“यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेबरम् ।। तं तमेबैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः” ।। गीता : 8.6 ।।
श्लोक की वैज्ञानिकता को समझो, गंगा कहती है..
भाव, कोशिका की व्यवस्था को सम्बोधित करता है. भाव- विचार यदि उत्तम हों तो, कोशिका सीधी रहती है और यदि दूषित-मलिन हों तो, कोशिका टेढ़ी. अब कौन, कितने दिन कोशिका को सीधी या टेढ़ी रखता है, उसी के आधार पर निर्भर करता है कि मरण के समय उसके शरीर की कोशिका व्यवस्था क्या है? अत: जीवन भर व्यक्ति ने जिन जिन कार्यों को गहराई से, लग्न लगाकर किया है..तदनुरूप उसकी कोशिका की स्थिति रहती है. इसी स्थिति को यह कोशिका प्राप्त करना चाहेगी तथा इसी के अनुरूप व्यक्ति के विचार मृत्वकाल में आयेंगे. अगले जन्म में पुन: मुषिको भव: को प्राप्त हो जायेंगे और फिर से व्यक्ति की चक्की चलने लगेगी. यही है “करनी देखो मरनी बेरियाँ” संस्कार, transfer of genetic property ; principle of conservation of work: यही भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि जिस जिस भाव का स्मरण, शरीर त्यागते समय मनुष्य करता है वह उसी भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ :
Remembering what ever object, at the end, he leaves the body, that alone is reached by him, O son of Kunti because of his constant thought of that object.
गंगा कहती है, यदि तुम, दिन-रात, शान ओ शोकत, मान-मर्यादा, ऐशोआराम अर्थात् भोग-विलास में व्यस्त हो, ऐसी स्थिति में गंगा में डुबकी लगाते समय भी तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी श्रद्धा, तुम्हारी तन्मयता कहीं ओर है. अतः विभिन्न धंधों में लगी तुम्हारी गहन तन्मयता के कारण, गंगा-स्नान से, कोशिका का धंधों के प्रति झुकाव नहीं मिटा, वह टेढा का टेढ़ा रह गया. अतः पदार्थिय-लगाव, ही, गंगा के प्रति तुम्हारी श्रद्धा की कमी और मृत्व तक विभिन्न पदार्थों से लगाव और इस लगाव के साथ जन्म लेने का कारण है.
इन्हें चिन्तन करते हुए, इनके विरुद्ध हो रहे कार्यो का विरोध करने के साथ ही इनके लिये युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिये.
“निरंतर- ध्यानस्त-काशी मध्य निर्लिप्ता पूण्यसलिला गंगा”
मनुष्य का शरीर, निरंतर काँपता हुआ शक्ति-निस्तारित एवं कार्य करता रहता है. इस शक्तिप्रवाह को जो जितना ही दिशा प्रदान करता है, उसकी शक्तिक्षय बचती है तथा वह उतना ही प्रखर-बुद्धि का होता है.
सदैव उसका चिन्तन, धर्म-युद्ध करने के कर्तव्य, अपने कर्मों और मन-बुद्धि को उसमें स्थिर कर उसे प्राप्त करना. गीता का सार, सुनों, गंगा कहती है..
“तस्मात्सर्बेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेबैष्यस्यसंशयः” ।। गीता : 8.7 ।।
श्लोक की वैज्ञानिकता को सुनों, गंगा कहती है..
सदैव मेरा चिन्तन और युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए. यह लगाम-घोड़ा का, नियंत्रित-बाह्य-शक्ति-प्रवाह का, केन्द्र से बंधे रह निर्भिकता से संसार के विभिन्न युद्ध करने आदि के सम्बन्ध को परिभाषित करता है. यही है, अर्जुन-जीवात्मा, रथ का सवार, शरीर-रूपी-रथ, पाँच इन्द्रियों रूपी- पाँच घोड़े, बुद्धि रूप लगाम, संसार-युद्धस्थल और श्रीकृष्ण, न्यूकलियस, रथ का सारथी, सारथी पर ही जीत-हार निर्भर है, सारथी ही ब्रह्माण्ड-नायक है.
“पीयबा भेल कोतबलबा-तब-डर काहे का.”
This set of mind that the God resides with me in the Nucleus of the body, every activity is being guided by it, hence, everything belongs to Him and as per His wish we need to fight with all the injustices of the world.
यही है, मानव, आत्मा, ब्रह्म द्वारा परब्रह्म की अध्यक्षता में संसार-समस्याओं को सुलझाना, जीवन- युद्ध करना और उसे
प्राप्त करना.
श्लोक का हिन्दी में अर्थ
अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए. अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन और बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ
Therefore, at all times, constantly remember me and fight. With mind and intellect absorbed in Me, thou shall doubtless come to Me.
गंगा कहती है.. तुम्हें सदैव मेरे पंच-भूतों की संतुलितता की व्यवस्था का चिन्तन-मनन, अपने शरीर की भाँति, मेरे लिये भी करना चाहिए. यह होना चाहिये, देश के प्रतिष्ठित और सर्वोच्च गंगा-व्यवस्था संस्था “गंगा-मंत्रालय” में. यहाँ, मंथन करो, गम्भीरता से देख कर और सोचकर कि कैसे तुम्हारी ही तरह मेरा शरीर भी पंचमहाभूतों से निर्मित और संतुलित रूप से समन्वित है. व्यवस्था करो कि कैसे..
(1)
विश्व की सर्वश्रेष्ठ उर्वरा-शक्ति रखने बाली, 10 लाख वर्ग कि.मी. का क्षेत्रफल लिए, भारत के विशाल मैदान, विश्व
का पालन करने की क्षमता रखनेवाली, शक्ति सम्पन्न हो?
(2)
जिसका जल, औसतन 10 पी.पी.एम ऑक्सीजन एवं अन्य बहूमूल्य औषधियाँ युक्त
हो,
कैसे बचायी जा सके?
(3)
महान पर्वतराज-हिमालय की गोद, आकाशीय क्षेत्र में, संतुलित ताप-दबाब युक्त ऋतुओं में समस्त रोगों के निदान कर, स्वस्थ बना कर और शरीर में बुद्धि-विवेक-भर कर, पालन करती हो, उसका संरक्षण कैसे किया जा सके?
यही परम्-शांति होगी,
मुक्ति-प्रदान करनेवाली
गंगा की सम्पूर्ण व्यवस्था वाला गंगा-मंत्रालय. इन्हें करो तभी तुम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हो.
बिना विचलित हुए, इनका निरंतर चिन्तन करता हुआ मानव दिव्यगति को प्राप्त करता है. माँ गंगा को प्रणाम.
“अनुचिन्तयन् काशी मध्य परमम्-दिव्यम्-गंगा”
विभिन्न आवृति-आयामों-श्रृंखलाओं से उठती-फैलती-मिटती ब्रहमाण्ड की बहुरंगी-नृत्यंगणा-शक्ति-तरंगे ब्रह्म-आनंद की दिव्य हिलकोर है.
अपना मन निरंतर लगाकर, अविचलित-भाव से “परमम्-पुरुषम्” को प्राप्त करता, गीता का सार, सुनों, गंगा कहती है..
“अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्” ।। गीता : 8.8 ।।
श्लोक की वैज्ञानिकता को सुनों, गंगा कहती है..
चेतना, मन और बुद्धि एक साथ, भावना, कोशिका-व्यवस्था है. बेटी बहन, स्त्री, माँ के प्रति अलग-अलग भावनायें, भिन्न-भिन्न कोशिका-व्यवस्था के हो जाने को ही सम्बोधित करता है. इसके लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती. इस “भावना-शक्ति-तरंग” के बदलते कंपन के आवृति एवं आयामों से विभिन्न कार्यों का भावात्मक निरुपण होता रहता हैं. अत: भावना, स्व- प्रवाहित शक्तिप्रवाह का द्योतक है, लेकिन भावना यदि अस्थिर है, आज के भोग-व्यस्त-योगी, जैसा, दिन में दिखावा, भावना कुछ और रात के भोगी-भावना कुछ, तो भीतर-बाहर-भावना-ढ़ाल, शक्ति-प्रवाह भयावह हो जाता है. उदाहरण के तौर पर आशा-राम, राम-रहीम आदि और अप्रत्यक्ष-दर्शी विभिन्न भावना-द्वेष-कार्यो में लिप्त लाखों-करोड़ों मनुष्यगण, लौकिक और परलौकिक दंडों का मिलना, अवश्यमभावी है, क्योकि “कार्य-अविनाशी” है. अत: “अविचलित-भाव” ही स्थिर-संघनित कोशिका-व्यवस्था से तीक्ष्ण-शक्तिप्रवाह कर, दिव्य-आनंद-दायक कार्य निस्पादित कर सकता है. यदि, यह भावना, देवता, परब्रह्म का हो और मन इस भावना की निरंतरता को कायम रखे, तो परब्रह्म से आत्मसात होना निश्चित है. यही है भगवान श्रीकृष्ण का निरंतर-मन-भगवान-भावना से उनकी निश्चित प्राप्ति का होना.
श्लोक का हिन्दी में अर्थ
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रख कर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ
With the mind not moving towards anything else, made steadfast by the method of habitual meditation and dwelling on the Supreme, Resplendent Purush, O son of Partha, one goes to Him.
गंगा कहती है.. “अविचलित-भाव”, बिना जाने हो नहीं सकता. यदि लगाव नहीं तो जानोंगे कैसे?
लगाव के लिये पास में बैठने की आवश्यकता होती, तभी तो, ताल-मेल, बैठता है, आन्तरिक-शक्ति का आदान-प्रदान होता है, शांति-मिलती है. इसे कहते हैं, भावना को प्रज्वलित होना. यही है भारत के महान साधकों के आत्मस्थ होने का परिणाम, मन और बुद्धि का महा-संगम का होना और मेरे प्रति “ब्रह्माणि-मातृ-भावना” का हृदयस्थल में स्थापित होना. इसी भावना के कारण, योगीराज तैलंगस्वाम ने जब दूध पीने की इच्छा की, मेरी-धारा दूध की हो गयी. पंडितराज-जग्गनाथ, महानशिवभक्त मैथिल कवि विद्यापति आदि ने जैसी जैसी भावनाएं की. मैंने माता-स्वरूपा बन कर पूरा किया. विशाल-भारत के करोड़ों महान लोगों को प्रयागराज कुम्भ में परंपरागत ढंग से, मोक्ष की भावना से, सूखी और प्रदूषित मेरी धारा मे निर्लिप्त और निर्विकार भावना से गंगा में डुबकी लगाते देखो, यह है भावना. अतः भावना ही सर्वोच्च-शक्ति है. इस भावना का दूषित होना ही तुम्हारी समस्त समस्याओं की जड़ है. तुम जितनी भी परियोजना मुझे नदी समझ कर बनाते हो, कभी भी तुम मेरे प्रवाह को अमृत-धारा नहीं समझा. अतः मेरे प्रति तुम्हारी माता-भावना समाप्त हो गयी. इसका परिणाम तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा, तुम कहाँ से हमको पा सकोगे?
ये,पालनकर्ता समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य हैं. इन्हें प्रणाम है.
“प्राचीनतम्-काशी मध्य नियन्ता गंगा”
“एटम”, लघु, अत्यन्त सूक्ष्म होता है. इसके भीतर न्यूकलियस लघुतम है. इसके भीतर, न्यूट्रोन लघुतम से भी लघुतर है, जिससे “गामा-रे” का निकल सकना, यह सत्यापित करता है कि ब्रहमाण्ड में हरेक-बिन्दु पर अनन्त-शक्ति कार्यरत है. अतः ब्रहमाण्ड परब्रह्म का शरीर है और इस शरीर में मानव एक माइक्रोव से भी सूक्ष्म है.
सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता, लघुतम से भी लघुतर, पालनकर्ता, परमपुरुष का ध्यान, गीता का सार सुनों, गंगा कहती है..
“कवि पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेधः ।। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्” ।। गीता : 8.9 ।।
श्लोक की वैज्ञानिकता को सुनो, गंगा कहती है..
“परमपुरुष”, 1. सर्वज्ञ, समस्त-जीव-शरीर के समस्त कार्यों की अध्यक्षता करनेवाला, 2. पुरातन, अनादिकाल का, 3. नियन्ता, समस्त कार्यों को अपने अधीनस्त रखने वाला, 4. लघुतम से भी लघुतर, सूक्ष्माति-सूक्ष्म, 5. प्रत्येक का पालन करने वाला, समस्त-जगत का सहायक, 6. समस्त भौतिकबुद्धि से परे, क्रिया-कलाप को बोद्धगम्य न हो पाना, 7. अचिन्त्य तथा नित्य, सोच से परे तथा सदा रहने वाला, 8. सूर्य की भाँति तेजवान, महान्तम-शक्तिधारक, 9. भौतिक प्रकृति से परे दिव्यरूप, केवल और केवल “न्यूट्रोन” का चरित्र ही है. यही ध्यानस्त-शिव का स्वरूप, शिवलिंग, ब्रहमाण्ड-न्यूट्रोंन, परमपुरुष का ध्यान है. यही आणविक-सिद्धान्त है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने विश्व को सर्वप्रथम दिया.
श्लोक का हिन्दी में अर्थ
मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालन कर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरूष के रूप में करे. ये सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे दिव्य रूप हैं.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ
Man should meditate on The Omniscient, the Ancient, the Over ruler, Miniature than the atom, the sustainer of all, of form Inconceivable, Self-luminous like the Sun and beyond the darkness of Maya.
गंगा कहती है.. केन्द्रस्तध्यान स्थिरता की सम्रृद्ध-तकनीक प्रस्तुत करती है कि चाहे शरीर जीव का हो या निर्जीव का, यही इन्जीनियरींग है, शिवलिंग को नदी में देखना-समझना-पूजना (व्यवस्था) ही बाढ़-कटाव-प्रदूषण आदि का नियंत्रण है. शिवलिंग-न्यूकलियस एक तरफ “प्रेशरड्रैग-फोर्सेस” से बाढ़ को सम्बोधित करता है तथा दूसरी तरफ अपने ढ़ाल से तीव्र-गतिज-ऊर्जा एवं सियर-फोर्स तथा सकेण्डरी-सर्कुलेशन की शक्ति से कटाव, मियैन्ड्रिंग को निरूपित करता है. इसी तरह नदी-प्रदूषण तथा अन्य समस्त कारणों का कारण, न्यूकलियस, शिवलिंग के प्रेशरड्रैग-फोर्सेस तथा काइनेटिक एनर्जी रेडिएशन(शिव संग शक्ति) को नहीं समझना तथा इनकी पूजा नहीं करना ही है.
योगशक्ति के द्वारा अविचल मन से पूर्ण-भक्ति के साथ इन्हें “शक्ति शांति प्रदायक ब्रह्म” के रूप में प्राप्त किया जाता है.
“अविचलित-काशी मध्य परमेश्वरी-गंगा”
प्रयाणकाल, मृत्व का समय, शरीर से आत्मा, दृष्यावलोकित से अदृष्यावलोकित, पदार्थ से शक्ति के विलगाव के समय पूर्ण-स्थिर रहना “महायोग” है.
मृत्व के समय, प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर, अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर में लगाने वाले को, गीता में सुनों, गंगा कहती है..
“प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।। भ्रूबोर्मध्ये प्राणमाबेश्य सम्यक् स तं परन पुरुषमुपैति दिव्यम्” ।। गीता : 8.10 ।।
श्लोक की वैज्ञानिकता को समझो, गंगा कहती है..
प्रयाणकाल, जीवन की संकलित सम्पूर्ण कमाई को, बोरिया-बिस्तर में समेंटने का विकराल काल कहलाता है. यह, अस्त-व्यस्त, परम घबराहट और वहापोह का समय सर्वसाधारण मनुष्य का होना अवश्यमभावी है. ऐसे समय में, शरीर के शक्ति-केन्द्र में, जहाँ पुरुष “ठोप-चंदन” और स्त्री “बिन्दी” साटती है, भोंहों के बीच के एक बिन्दु पर प्राण, शक्तिदीप स्थिर, बिना थड़थड़ाता हुआ, पूर्णभक्ति के साथ परमेंश्वर को स्मरण, कोशिका को केन्द्राभिमूख करते शक्तिप्रवाह. जो करता है, वह निश्चय ही परब्रह्म को प्राप्त होता है. यह “ज्ञान-ध्यान-योग” है. यह है “इन्द्री और मन” को तिस्कृत करके, केन्द्र से प्राण को, अपने आप को परब्रह्म से मिलाना. यह वही कर सकता है, जिसने जीवन भर योग का अभ्यास किया है अर्थात् वह योगी है.
श्लोक का हिन्दी में अर्थ
मृत्व के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योग-शक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चय रूप से भगवान को प्राप्त होता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ
He who meditates on Him at the time of death, full of devotion with the mind unmoving and also by the Power of Yoga, fixing the whole Pran between the eyebrows, he goes to that Supreme, Resplendent Purush.
गंगा कहती है.. भारत के महानसाधकों, योगी-महात्माओं, शास्त्र-पुराणों की तत्वदर्शिता ने यह सत्यापित किया कि गंगा की आणविक-शक्ति कोशिका को उसी तरह व्यवस्थित कर शक्तिशाली बना देती है, जैसे चुम्बक का घिसान लोहे के मॉलिक्यूल को सीधा कर देता है तथा उसके भीतर शक्तिशाली पोल का निर्माण कर देता है. अतः गंगा-जल, मात्र औषधि नहीं हैं, यह कोशिका-व्यवस्था, चुम्बकीय-संस्कार-जागृति-शक्ति से युक्त है. तुम इसे पान या सेवन करके तो देखो, तुम्हारी काया-कल्प हो जायेगी. तुम्हारे चरित्र का पुनर्निर्माण हो जायेगा, भारत-भर में तुम गंगाजल सप्लाई करो, देखो, यह रोग-मुक्त और संस्कार-युक्त भारत होगा. यहाँ के बच्चे महान-संस्कारी और ओजस्वी होंगे, तुम चारित्रिक-दोषों वाली विभिन्न समस्याओं से मुक्त हो जाओगे. यही है गंगा-जल की एक बूंद का महत्व, मरने वालों के मुख में डाल उनके समस्त पापों को क्षण में नष्ट करते परब्रह्म तक ले जाने की शक्ति लिए. गंगा-जल की इस शक्ति को पहचानों, यह मात्र पय-जल नहीं है. गंगा-जल, अकेले, तुम्हें महान-अतुलनीय विश्व-गुरु बना सकता है. तुम हीरे को पहचानो. कहाँ मृग-तृष्णा में भटक रहे हो? हीरे को हीरा ही रहने दो, इसे पत्थर मत बनाओ.