न द्वेष्टयकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।। गीता : 18.10 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
सतोगुण में स्थित
बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभ कर्म से लिप्त होता है, वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान
और सच्चा त्यागी है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
‘बुद्धिमान-त्यागी’ संयमित और दृढ़ता से घनिष्ठ बनी चुम्बकीय कोशिका की आकर्षण शक्ति
को अन्तरमन करने वाले चुम्बक के पोल पर ध्यान रखने वाले
किसी के अच्छा बुरा कर्म उसके गुण-अवगुण दोष और उसकी सुन्दरता कुरूपता पर ध्यान
नहीं देकर अपना शक्ति क्षीण नहीं करता, यही था गौतमबुद्ध का रास्ता और यही है
तेजस्वी बुद्धिमान सच्चा त्यागी का जीवन लक्ष्य प्राप्ति का अटल-पथ. यही हैं सतोगुण
में स्थित बुद्धिमान त्यागी.
(22) स्थित-प्रग्य
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ‘कर्म-योगी’ हैं?
गीता 5.21 और 18.10 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि संयमित और नियंत्रित
इन्द्रियों से बाह्य विषयों में आसक्ति रहित अन्तःकरण वाले साधक की आत्मा में
स्थित जो ज्ञान-ध्यान जनित सात्विक आनन्द है, वह है उस परमात्मा को सर्वत्रैव
समभाव में आल्हादित देखते रहना. इसी आनंदानंद में कवि कहता है, माँ..भावना वेदना
के भाव-जगत में जीना मुझे अच्छा लगता है. मेरे अपनेपन के विस्तार के संघर्ष में
ऐसी भावनाएँ कुंठित तो नहीं हो जाती है न? माँ, प्रभु-प्रदत्त
प्रेमपुंज यदि मर्यादित ही होता है तो मैं कहाँ कहाँ बाँट सकूंगा ? कितने-कितने प्रिय स्वजनों को उससे सराबोर कर
सकूंगा ? मुझे तो सर्जन करना है निष्काम
भाव से अपनी भावनाओं के सहृदयी स्पर्श के साथ मुझे तो
सूखे बंजर खेत जैसे प्रत्येक हृदय में वयं के अंकुर उगाने हैं, स्वप्न विहीन आँखों
में स्वप्नों की सजावट करनी है, मुझे तो सुन्न पड़ गये पाँवों में गति भरनी है, शांत
समुद्र की भावनाओं को पतवार से हिला देना है. माँ मुझे प्रतीक्षा है स्व के पूर्ण
समर्पण की. माँ मुझे प्रतीक्षा है मेरे अपनेपन के अनन्त विस्तार की. माँ मुझे प्रतीक्षा
है. स्वयं बन जाने की. माँ मुझे प्रतीक्षा है भावनाओं के बरसते प्रपात के नीचे
बालक बनकर नहाने की, प्रतिपल भीगते रहनें की. ये हैं स्व के सम्पूर्ण सम्पर्ण से
सबको जोड़ने की हृदयस्थ प्रेम भावनाओं को रखते और इन्हें साकार रूप से गांव के
दरिद्र नारायण तक के घर में बिजली गैस चुल्हा प्रतिष्ठित करने वाले भारत के
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का स्थित-प्रग्य रहते कर्म योगी होना. (नरेंद्र
मोदी पुस्तक साक्षीभाव, पेज-41-43)
गंगा कहती है :
मैं वह माँ हूँ जो अकुशल को तन्मयता से उसमें अपनी आत्म शक्ति की कुशल समारोहों से कुशल बनाने का प्रयास करती रहती हूँ. मैं विभिन्न नदियों के समस्त भू-जल, सतही जल, अवजल और मलजल को समेटते गंगाजल में रूपांतरित करती रहती हूँ. किसी जल स्त्रोत से मुझे न प्रेम है न घृणा. तुम जैसा मुझे देखते वैसा मैं नहीं, तुम जैसा मुझे मानते मैं वैसा तुम्हारे लिए होती. सोचो, गौमुख से गंगा-सागर तक मैं क्या थी, जो थी वही हूँ, वही मेरी रूप-रंग-ढंग-ताल-पड़ताल हैं. तुमने इन्हें दबा डाला है. मैं वही ब्रह्मरूपिणी जो थी वही हूँ. मुझे इस रूप में देखते रखने वाला संशय रहित बुद्धिमान सच्चा ज्ञानी और त्यागी है.