एतान्यपि तु कर्माणि संग त्यक्त्वा फलानि च। कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।। गीता : 18.6 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
इन सारे कार्यों को किसी
प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना
सम्पन्न करना चाहिए। हे पृथापुत्र ! इन्हें कर्तव्य मान कर सम्पन्न किया जाना
चाहिए। यही मेरा अन्तिम मत है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
कर्तव्य कर्म वह कर्म है
जिसके बिना शरीर का निर्वहन असंभव है. यह अनिवार्य न्यूनतम शक्ति-प्रवाह को उद्घोषित
करता है. यज्ञ-दान-तप तथा मन के कम्पन्न रूपी शक्ति तरंगों से अव्यवस्थित और असंतुलित
कोशिकाओं को व्यवस्थित करते न्यून कम्पनावस्था में रखता है. इससे ब्रह्म-रूप, शाति-प्रदायक
स्थिर-केंद्र का निर्माण होता है. यही है भगवान द्वारा निश्चय किया हुआ उत्तम मत.
(18) गीता (5.12-13 और 18.6) प्रतिष्ठित करती है कि कर्म-योगी अपने अन्तःकरण को मन और इन्द्रियों
को वश में रखकर निरंतरता से आसक्ति-रहित कर्म करता है और कर्म-फल ब्रह्म को
समर्पित करता है; यही वे महान योगी
हैं जो कहते हैं- ‘मेरा यह
प्यारा मन ललकता ही रहता है. यह मन दो दुनिया के बीच में भटक जाता है, एक दुनिया
जो लगभग थकी हुई है और दूसरी अभी जन्मी ही नहीं है. वह जल से जलती है और चन्द्रमा
उसे शीतलता प्रदान करने का विश्वास दिलाता है. परन्तु कभी-कभी वह भी जल उठता है. कवि
स्वयं ही स्वयं के एक्स-रे को समझने का प्रयत्न करता है. अन्दर से पूर्ण रूप से
नष्ट करने वाला यह कौन सा कष्ट है? कोई भयानक कोलाहल
समग्र अस्तित्व में व्याप्त हो गया है. कभी कभी ऐसा क्यों लगता है कि अपने आप पर
से विश्वास उठ गया हो. तब परमात्मा के भरोसे रहकर एक ऐसी तैयारी हो कि चाहे कैसी
भी विकट परिस्थिति आए. हम उससे निपट लेंगे या उसे एक चुनौती दे सकेंगे. चारों ओर
से घिरा हुआ मानव यदि प्रार्थना करे तो जिसमें कोई लाचारी न हो परन्तु एक प्रकार
की नम्रता हो, यहाँ ऐसा ही भाव
प्रदर्शित है. कवि कहता है- ‘एक प्रार्थना
करूँ? जो कुछ भी होना है, वह हो, मेरे त्याग, मेरे समर्पण की अनूभूति यत्र-तत्र-सर्वत्र तू
कराये बिना नहीं रहेगी, ऐसी श्रद्धा है’.
यह है अपने ‘साक्षी भाव’ पुस्तक (पेज-10) में उद्धृत भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र
मोदी जी के अन्तस्थल में ‘देवी-माँ’ की भक्ति रूपी समृद्ध
शक्ति से कर्म-योगी होना.
गंगा कहती है :
मेरे लिए तुम्हारा ‘कर्तव्य कर्म’ वही है जो कर्तव्य कर्म तुम अपने जीवन के लिए करते हो. यदि तुम्हारे शरीर से अपरिभाषित और अनियंत्रित रक्त निकाला जाए और तुम्हें प्रोटोप्लाज्म (सही भोजन) नहीं मिले तो तुम कितने दिन जिन्दा रह सकोगे? अतः यह तुम्हारा प्रथम कर्तव्य-कर्म है कि हमें जिन्दा समझते हुए हममें इनफ्लो-आउटफ्लो का संतुलन कैसे हो इसे जानते हुए, दोहन को नियंत्रित करते ‘वाटर-हार्वेस्टिंग-टेक्नोलॉजी को लागू करना. यही है भोजन त्रियम्बकम दोहन-जोतन दिन भर को रोकना. तुम्हारा दूसरा क.क.(कर्तव्य-कर्म) है मेरे शरीर के भौतिकी स्वरूप कौन अंग किस शक्ति और कार्य का को समझना. बिना ज्ञान के का बाँह का इन्जेक्शन आँख में डालते हो. STP को सैंड-वेड में नहीं लगाकर किनारे की मूल्यवान जमीन में बिना किसी तकनीकी का लगाते हो और तीसरा क.क. है, हिमालय को समझते बड़े-बाँधों (यथा-टेहरी) को नहीं बनवाना और भी बहुत से अन्य कर्तव्य कर्म हैं जिनका ज्ञान-ध्यान आवश्यक है.