गंगा तट पर देखा मैने
साधना में मातृ के
सानिध्य बैठा इक सन्यासी
मृत्यु को ललकारता
सानंद समय का लेख बनकर
लिख गया इक अमिट पन्ना।
न कोई नागनाथ मरा है
नहीं मरेगा निगमानंद अपना
मर जायेंगे जीते जी हम सब सिकंदर
नही जियेगा सुपना निर्मल गंगा जी का।
प्राणवायु नहीं बचेगी
बांधों के बंधन में बंधकर
खण्ड हो खण्ड हो जायेगा
उत्तर का आंचल
मल के दलदल में फंसकर
यू पी से बंगाल देस तक
डूब मरेंगे गौरव सारे।
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूं......
लिख जायेगा हत्यारों में नाम हमारा
पङ जायेंगे वादे झूठे गंगाजी से
पुत जायेगी कालिख हम पर
मुंड मुंडाकर बैठे जो हम गंग किनारे।
गंगा को हम धर्म में बांटें
या फांसें दल के दलदल में
या मां को बेच मुनाफा खायें
या अनन्य गंग की खातिर
मुट्ठी बांध खङे हो जायें
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूं....
गौ -गंगा -गायत्री गाने वाले, कहां गये ?
इस दरिया को पाक बताने वाले, कहां गये ?
कहां गये, नदियों को जीवित करने का दम भरने वाले ?
कहां गये, गंगा का झंडा लेकर चलने वाले ?
धर्मसत्ता के शीर्ष का दंभ जो भरते है, वे कहां गये ?
कहां गये, उत्तर -पूरब काशी पटना वाले ?
कहां गये गंगा के ससुरे वाले, कहां गये ?
''साथ में खेलें, साथ में खायें, साथ करें हम सच्चे काम’''
कहने वाले कहां गये ?
अरुण, अब उत्तर चाहे जो भी दे लो
जीवित नदियां या मुर्दा तन
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूं....
हो सके ललकार बनकर
या बनें स्याही अनोखी
दे सके न गर चुनौती,
डट सकें न गंग खातिर
अश्रु बनकर ही बहें हम,
उठ खङा हो इक बवंडर
अश्रु बन जायें चुनौती,
तोङ जायें बांध-बंधन
देखते हैं कौन सत्ता
फिर रहेगी चूर मद में
लोभ के व्यापार में
कब तक करेगी
गंग मात पर आघात।
गिर गई सत्ता गिरे,
मूक बनकर हम गिरेंगे या उठेंगे
अन्याय के संग चलेंगे
या उसकी छाती मूंग दलेंगे
तय अब हमको ही करना है,
गंगा तट से बोल रहा हूं....